महाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-38

तृतीय (3) अध्‍याय: महाप्रस्‍थानिक पर्व

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महाभारत: महाप्रस्‍थानिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 17-38 का हिन्दी अनुवाद


वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! धर्मराज युधिष्ठिर का यह कथन सुनकर कुत्ते का रूप धारण करके आये हुए धर्मस्वरूपी भगवान बड़े प्रसन्न हुए और राजा युधिष्ठिर की प्रशंसा करते हुए मधुर वचनों द्वारा उनसे इस प्रकार बोले। साक्षात धर्मराज ने कहा- "राजेन्द्र! भरतनन्दन तुम अपने सदाचार, बुद्धि तथा सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति होने वाली इस दया के कारण वास्तव में सुयोग्‍य पिता के उत्तम कुल में उत्पन्न सिद्ध हो रहे हो। बेटा! पूर्वकाल में द्वैतवन के भीतर रहते समय भी एक बार मैंने तुम्हारी परीक्षा ली थी; जबकि तुम्हारे सभी भाई पानी लाने के लिये उद्योग करते हुए मारे गये थे। उस समय तुमने कुन्ती और माद्री दोनों माताओं में समानता की इच्‍छा रखकर अपने सगे भाई भीम और अर्जुन को छोड़ केवल नकुल को जीवित करना चाहा था। इस समय भी 'यह कुत्ता मेरा भक्त है' ऐसा सोचकर तुमने देवराज इन्द्र के भी रथ का परित्याग कर दिया है; अत: स्वर्गलोक में तुम्हारे समान दूसरा कोई राजा नहीं है। भारत! भरतश्रेष्ठ! यही कारण है कि तुम्हें अपने इसी शरीर से अक्षय लोकों की प्राप्ति हुई है। तुम परम उत्तम दिव्यगति को पा गये हो।"

वैशम्पायन जी कहते हैं- यों कहकर धर्म, इन्द्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, देवता तथा देवर्षियों ने पांडुपुत्र युधिष्ठिर को रथ पर बिठाकर अपने-अपने विमानों द्वारा स्वर्गलोक को प्रस्थान किया। वे सब-के-सब इच्छानुसार विचरने वाले, रजोगुणशून्य पुण्‍यात्मा, पवित्र वाणी, बुद्धि और कर्म वाले तथा सिद्ध थे। कुरुकुलतिलक राजा युधिष्ठिर उस रथ में बैठकर अपने तेज से पृथ्‍वी और आकाश को व्‍याप्‍त करते हुए तीव्र गति से ऊपर की ओर जाने लगे। उस समय सम्पूर्ण लोकों का वृत्तान्त जानने वाले, बोलने में कुशल तथा महान तपस्वी देवर्षि नारद जी ने देवमण्‍डल में स्थित हो उच्च स्वर से कहा- "कितने राजर्षि स्वर्ग में आये हैं, वे सभी यहाँ उपस्थित हैं, किंतु महाराज युधिष्ठिर अपने सुयश से उन सब की कीर्ति को आच्छादित करके विराजमान हो रहे हैं। अपने यश, तेज और सदाचार रूप सम्प‍त्ति से तीनों लोकों को आवृत करके अपने भौतिक शरीर से स्वर्गलोक में आने का सौभाग्‍य पांडुनन्दन युधिष्ठिर के सिवा और किसी राजा को प्राप्‍त हुआ हो, ऐसा हमने कभी नहीं सुना है। प्रभो! युधिष्ठिर! पृथ्‍वी पर रहते हुए अपने आकाश में नक्षत्र और ताराओं के रूप में जितने तेज देखे हैं, वे इन देवताओं के सहस्रों लोक हैं; इनकी ओर देखो।"

नारद जी की बात सुनकर धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने देवताओं तथा अपने पक्ष के राजाओं की अनुमति लेकर कहा- "देवेश्वर! मेरे भाइयों को शुभ या अशुभ जो भी स्थान प्राप्‍त हुआ हो, उसी को मैं भी पाना चाहता हूँ। उसके सिवा दूसरे लोकों में जाने की मेरी इच्छा नहीं है।" राजा की बात सुनकर देवराज इन्द्र ने युधिष्ठिर से कोमल वाणी में कहा- "महाराज! तुम अपने शुभ कर्मों द्वारा प्राप्‍त हुए इस स्वर्गलोक में निवास करो। मनुष्‍य लोक के स्नेहपाश को क्‍यों अभी तक खींचे ला रहे हो? कुरुनन्दन! तुम्‍हें वह उत्तम सिद्धि प्राप्‍त हुई है, जिसे दूसरा मनुष्‍य कभी और कहीं नहीं पा सका। तुम्‍हारे भाई ऐसा स्थान नहीं पा सके हैं। नरेश्वर! क्‍या अब भी मानवभाव तुम्‍हारा स्पर्श कर रहा है? राजन! यह स्वर्गलोक है। इन स्वर्गवासी देवर्षियों तथा सिद्धों का दर्शन करो।"

ऐसी बात कहते हुए एश्वर्यशाली देवराज से बुद्धिमान युधिष्ठिर ने पुन: यह अर्थयुक्‍त वचन कहा- "दैत्यसूदन! अपने भाइयों के बिना मुझे यहाँ रहने का उत्साह नहीं होता; अत: मैं वहीं जाना चाहता हूँ, जहाँ मेरे भाई गये हैं तथा जहाँ ऊँचे कद वाली, श्यामवर्णा, बुद्धिमती सत्त्वगुणसम्‍पन्ना एवं युवतियों में श्रेष्ठ द्रौपदी गयी है।"


इस प्रकार श्रीमहाभारत महाप्रस्‍थानिक पर्व में युधिष्ठिर का स्‍वर्गारोहण विषयक तीसरा अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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