महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 37 श्लोक 11-17

सप्तत्रिंश (37) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 11-17 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 13


अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थिति[1] और तत्त्व ज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना[2] यह सब ज्ञान है।[3] और जो इससे विपरित हैं, यह अज्ञान[4] है- ऐसा कहा है।

सम्बन्ध- इस प्रकार ज्ञान के साधनों का ‘ज्ञान’ के नाम से वर्णन सुनने पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि इन साधनों द्वारा प्राप्त ‘ज्ञान’ से जानने योग्य वस्तु क्या है और उसे जान लेने से क्या होता है। उसका उत्तर देने के लिये भगवान अब जाने के योग्य वस्तु के स्वरूप का वर्णन करने की प्रतिज्ञा करते हुए उसके जानने का फल ‘अमरत्व की प्राप्ति’ बतलाकर छः श्लोकों में जानने के योग्य परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हैं- जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त होता है, उसको भलीभाँति कहुँगा। वह अनादि वाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता, न असत्।[5]

वह सब ओर हाथ-पैर वाला सब ओर हाथ नेत्र, सिर और मुख वाला और सब ओर कान वाला हैं;[6] क्योंकि वह संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं।[7] वह सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु वास्तव में सब इन्द्रियों से रहित है[8] तथा आसक्ति रहित होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और निर्गुण होने पर भी गुणों को भोगने वाला है।[9] यह चराचर सब भूतों के बाहर- भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है;[10] एवं वह सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है[11] तथा अति समीप में और दूर में भी स्थित है।[12]

वह परमात्मा विभागरहित एक रूपये आकाश के सदृश परिपूर्ण होने पर भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में विभक्त-सा स्थित प्रतीत होता है।[13] तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भूतों को धारण-पोषण करने वाला रुद्र रूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको उत्पन्न करने वाला है। वह परब्रहा ज्योतियों का भी ज्योति[14] एवं माया से अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्त्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है[15] और सबके हृदय में विशेष रूप से स्थित है।[16]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्मा नित्य, चेतन, निर्विकार और अविनाशी है; उससे भिन्न जो नाशवान, जड़, विकारी और परिवर्तनशील वस्तुएँ प्रतीत होती हैं- वे सब अनात्मा हैं, आत्मा का उनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, शास्त्र और आचार्य के उपदेश से इस प्रकार आत्मतत्त्व को भली-भाँति समझ लेना ही ‘अध्यात्मज्ञान’ है और बुद्धि में ठीक वैसा ही दृढ़ निश्चय करके मन से उस आत्मतत्त्व को नित्य-निरन्तर मनन करते रहना ‘अध्यात्मज्ञान में नित्य स्थित रहना’ है।
  2. तत्त्व ज्ञान का अर्थ है- सच्चिदानन्दघन पूर्ण ब्रह्म परमात्मा; क्योंकि तत्त्वज्ञान से उन्हीं की प्राप्ति होती है। उन सच्चिदानंदघन गुणातीत परमात्मा का सर्वत्र समभाव से नित्य-निरन्तर अनुभव करते रहना ही उस अर्थ का दर्शन करना है।
  3. ‘अमानित्वम्’ से लेकर ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्’ तक जिनका वर्णन किया गया है, वे सभी ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं, इसीलिये उनका नाम भी ‘ज्ञान’ रखा गया है। अभिप्राय यह है कि दूसरे श्लोक में भगवान ने जो यह बात कही है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मेरे मत से ज्ञान है- इस कथन से कोई ऐसा न समझ ले कि शरीर का नाम ‘क्षेत्र’ और इसके अंदर रहने वाला ज्ञाता आत्मा का नाम ‘क्षेत्रफल’ है- यह बात हमने समझ ही ली; बस, हमें ज्ञान प्राप्त हो गया; किंतु वास्तव में सच्चा ज्ञान वही है जो उपर्युक्त बीस साधनों के द्वारा क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेने पर होता है। इसी बात को समझाने के लिये यहाँ साधनों को ‘ज्ञान’ के नाम से कहा गया है। अतएव ज्ञानी में उपयुक्त गुणों का समावेश पहले से ही होना आवश्यक है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि ये सभी गुण सभी साधकों में एक ही समय में हो। अवश्य ही, इनमें जो ‘अमानित्व’, ‘अदम्भित्व’ आदि बहुत से सबके उपयोगी गुण हैं, वे तो सबमें रहते ही हैं। इनके अतिरिक्त ‘अव्यभिचारिणी भक्ति’, ‘एकान्तदेशसेवित्व’, ‘अध्यात्मज्ञाननित्यत्व’, ‘तत्त्वज्ञानार्थदर्शन’- इनमें अपनी-अपनी साधन शैली के अनुसार विकल्प भी हो सकता है।
  4. उपर्युक्त अमानित्वादि गुणों से विपरीत जो मान-बढ़ाई कामना, दम्भ, हिंसा, क्रोध, कपट, कुटिलता, द्रोह, अपवित्रता, अस्थिरता, लोलुपता, आसक्ति, अहंता, ममता, विषमता, अश्रद्धा, और कुसंग आदि दोष है, वे सभी जन्म-मृत्यु के हेतु भूत अज्ञान को बढ़ाने वाले और जीवन का पतन करने वाले हैं; इसलिये वे सब अज्ञान ही हैं। अतएव उन सबका सर्वथा त्याग करना चाहिए।
  5. जो वस्तु प्रमाणों द्वारा सिद्ध की जाती है, उसे ‘सत्’ कहते हैं स्वतः प्रमाण नित्य अविनाशी परमात्मा किसी भी प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि परमात्मा से ही सबकी सिद्धि होती है, परमात्मा तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है। वह प्रमाणों द्वारा जानने में आने वाली वस्तुओं से अत्यन्त विलक्षण हैं, इसलिये परमात्मा को ‘सत्’ नहीं कहा जा सकता तथा जिस वस्तु का वास्तव में अस्तित्व नहीं होता, उसे ‘असत्’ कहते है; किंतु परब्रह्म परमात्मा का अस्तित्व नहीं है, ऐसी बात नहीं है। वह अवश्य है और वह है- इसी से अन्य सब को होना भी सिद्ध होता है; अतः उसे ‘असत्’ भी नहीं कहा जा सकता। इसीलिये परमात्मा ‘सत्’ और ‘असत्’ दोनों से ही परे हैं। यद्यपि गीता मे नवम अध्याय के उन्नसीवें श्लोक में तो भगवान ने कहा है कि ‘सत्’ भी में हुँ और ‘असत्’ भी मैं हुँ और यहाँ यह कहते हैं कि उस जानने योग्य परमात्मा को न ‘सत्’ कहा जा सकता है। और न ‘असत्’; किंतु यहाँ विधि-मुख से वर्णन है, इसलिये भगवान का कहना है कि ‘सत्’ भी में हूँ और ‘असत्’ भी में हूँ, उचित ही है। पर यहाँ निषेधमुख से वर्णन है, किंतु वास्तव में उस पर ब्रह्म परमात्मा का स्वरूप वाणी के द्वारा न तो विधि मुख से बतलाया जा सकता है और न निषेधमुख से ही। उसके विषय में जो कुछ भी कहा जाता है, सब केवल शाखा चन्द्रन्याय से उसे लक्ष्य कराने के लिये ही है, उसके साक्षात स्वरूप का वर्णन वाणी द्वारा हो ही नहीं सकता। श्रुति भी कहती है- ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय उप. 2/9) अर्थात ‘मन के सहित वाणी जिसे न पाकर वापस लौट आती है। (वह ब्रह्म ही)’ इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहाँ भगवान निषेधमुख से कहा है कि वह न ‘सत्’ कहा जाता है और न ‘असत्’ ही। अर्थात मैं जिस ज्ञेयवस्तु का वर्णन करना चाहता हूँ, उसका वास्तविक स्वरूप तो मन-वीणा अविषय है; अतः उसका जो कुछ भी वर्णन किया जायगा, उसे उसका तटस्थ लक्षण ही समझना चाहिये।
  6. वह पर ब्रह्म परमात्मा सब ओर हाथ वाला है। उसे कोई भी वस्तु कहीं से भी समर्पण की जाय, वह वहीं से उसे ग्रहण करने में समर्थ है। इसी तरह वह सब जगह पैर वाला है। कोई भी भक्त कहीं से उस के चरणों में प्रणामादि करते हैं, वह वहीं उसे स्वीकार कर लेता है। वह सब जगह आँख वाला है उससे कुछ भी छिपा नहीं है। वह सब जगह सिर-वाला है। यहाँ कहीं भी भक्त लोग उसका सत्कार करने के उद्देश्य पुष्प आदि उसके मस्तक पर चढ़ाते हैं, वे सब ठीक उस पर चढ़ते हैं। वह सब जगह मुख वाला है। उसके भक्त जहाँ भी उसको खाने की वस्तु समर्पण करते हैं, वह वहीं उस वस्तु को स्वीकार कर सकता है। अर्थात वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा सबका साक्षी, सब कुछ देखने वाला तथा सबकी पूजा और भोग स्वीकार करने की शक्ति वाला है। वह परमात्मा सब जगह सुनने की शक्ति वाला है। जहाँ कहीं भी उसके भक्त उसकी स्तुति करते हैं या उसे प्रार्थना अथवा याचना करते हैं, उन सबको वह भलीभाँति सुनता है।
  7. आकाश जिस प्रकार वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का कारण होने से उनको व्याप्त किये हुए स्थित है, उसी प्रकार वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा भी इस चराचर जीवसमूह सहित समस्त जगत का कारण होने से सबको व्याप्त किये हुए स्थित है, अतः सब कुछ उसी से परिपूर्ण है।
  8. अभिप्राय यह है कि तेरहवें श्लोक में जो उसको सब जगह हाथ पैर वाला और अन्य सब इन्द्रियों वाला बतलाया गया है, उससे यह बात नहीं समझनी चाहिए। कि वह ज्ञेय परमात्मा अन्य जीवों की भाँति हाथ-पैर आदि इन्द्रियों वाला है; वह इस प्रकार की इन्द्रियों से सर्वथा रहित होते हुए भी सब जगह उन-उन इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने में समर्थ है। इसलिये उसको सब जगह सब इन्द्रियों वाला और सब इन्द्रियों से रहित कहा गया है श्रुति मेें भी कहा है- अपाणिपादो जनवो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः। (श्वेताश्वतरोपनिषद् 3।19) ‘वह परमात्मा बिना पैर-हाथ के ही वेग से चलता और ग्रहण करता है तथा बिना नेत्रों के देखता और बिना कानों के ही सुनता है।’
  9. अभिप्राय यह है कि वह परमात्मा सभी गुणों का भोक्ता होते हुए भी अन्य जीवों की भाँति प्रकृति के गुणों से लिप्त नहीं है। वह वास्तव में गुणों से सवर्था अतीत है, तो भी प्रकृति के सम्बन्ध से समस्त गुणों का भोक्ता है। यही उसकी अलौकिकता है।
  10. वह परमात्मा चराचर भूतों के बाहर और भीतर भी हैं, इससे कोई यह बात न समझ ले कि चराचर भूत उससे भिन्न होंगे। इसी को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं कि चराचर भूत भी वही है। अर्थात जैसे बरफ के बाहर-भीतर भी जल है और स्वयं बरफ भी वस्तुतः जल ही है,- जल से भिन्न कोई वस्तु पदार्थ नहीं हैं, उसी प्रकार यह समस्त चराचर जगत उस परमात्मा का ही स्वरूप है, उससे भिन्न नहीं हैं।
  11. जैसे सूर्य की किरणों में स्थित परमाणु रूप जल साधारण मनुष्यों के जानने में नहींं आता- उनके लिये वह दुर्विज्ञेय हैं उसी प्रकार वह सर्वव्यापी पर ब्रह्म परमात्मा भी उस परमाणु रूप जल की अपेक्षा भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण साधारण मनुष्यों के जानने में नहीं आता; इसलिये वह अविज्ञेय हैं।
  12. सम्पूर्ण जगत में और इसके बाहर ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ परमात्मा न हों। इसलिये वह अत्यन्त समीप में भी है और दुर में भी है; क्योंकि जिसको मनुष्य दूर और समीप मानता है, उन सभी स्थानों वह विज्ञानानन्दघन परमात्मा सदा ही परिपूर्ण है। इसलिये इस तत्त्व को समझने वाले श्रद्धालु मनुष्यों के लिये वह परमात्मा अत्यनत समीप है और अश्रद्धालु के लिये अत्यन्त दुर है।
  13. इस वाक्य से उस जानने योग्य परमात्मा के एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। अभिप्राय यह है कि जैसे महाकाश वास्तव में विभागरहित है तो भी समस्त चराचर प्राणियों में क्षेत्रज्ञ रूप से पृथक-पृथक के सदृश स्थित प्रतीत होता है; किंतु यह भिन्नता केवल प्रतीति मात्र ही है, वास्तव में वह परमात्मा एक है और वह सर्वत्र परिपूर्ण है।
  14. चन्द्रमा, सूर्य, विद्युत, तारे आदि जितनी भी बाह्य ज्योतियाँ हैं; बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ आदि जितनी आध्यात्मिक ज्योतियाँ हैं तथा विभिन्न लोकों और वस्तुओं के अधिष्ठातृदेवता रूप जो देवज्योतियाँ हैं- उन सभी का प्रकाशक वह परमात्मा है। तथा उन सब में जितनी प्रकाशनशक्ति हैं, वह सभी उसी परब्रह्म परमात्मा का एक अंशमात्र हैं।
  15. अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त समानित्वादि ज्ञान-साधनों के द्वारा प्राप्त तत्त्वज्ञान से वह जाना जाता है।
  16. वह परमात्मा सब जगह समान भाव से परिपूर्ण होते हुए भी, हृदय में उसकी विशेष अभिव्यक्ति है। जैसे सूर्य का प्रकाश सब जगह समान रूप से विस्तृत रहने पर भी दर्पण आदि में उसके प्रतिबिम्ब की विशेष अभिव्यक्ति होती है एवं सूर्यमुखी शीशें में उसका तेज प्रत्यक्ष प्रकट होकर अग्नि उत्पन्न कर देता है, अन्य पदार्थों में उस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं होती, उसी प्रकार हृदय उस परमात्मा की उपलब्धि का स्थान है। ज्ञानी के हृदय में तो वह प्रत्यक्ष ही प्रकट है। यही बात समझाने के लिये उसको सबके हृदय में विशेष से स्थित बतलाया गया है।

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