महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 80 श्लोक 23-41

अशीतितम (80) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व:अशीतितम अध्याय: श्लोक 23-41 का हिन्दी अनुवाद
  • तब शुभ लक्षणों से युक्त ब्रह्म मुहूर्त में ध्यानस्थ होने पर अर्जुन ने अपने आपको भगवान श्रीकृष्ण के साथ आकाश में जाते देखा। (23)
  • पवित्र हिमालय के शिखर तथा तेजःपुन्ज से व्याप्त एवं सिद्धों और चारणों से सेवित मणिमान पर्वत को भी देखा। (24)
  • उस समय अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के साथ वायुवेग के समान तीव्र गति से आकाश में बहुत ऊँचे उठ गये। भगवान केशव ने उनकी दाहिनी बाँह पकड़ रखी थी। (25)
  • तत्पश्चात धर्मात्मा अर्जुन ने अद्भुत दिखायी देने वाले बहुत-से पदार्थों को देखते हुए क्रमश: उत्तर दिशा में जाकर श्वेत पर्वत का दर्शन किया। (26)
  • इसके बाद उन्होंने कुबेर के उद्यान में कमलों से विभुषित सरोवर तथा अगाघ जलराशि‍ से भरी हुई सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा का अवलोकन किया। (27)
  • गंगा के तट पर स्फटिकमणिमय पत्थर सुशोभित होते थे। सदा फूल और फलों से भरे हुए वृक्ष समूह वहाँ की शोभा बढ़ा रहे थे। गंगा के उस तटप्रान्त में बहुत-से सिंह और व्याघ्र विचरण करते थे। नाना प्रकार के मृग वहाँ सब ओर भरे हुए थे। (28)
  • अनेक पवित्र आश्रमों से युक्त और मनोहर पक्षियों से सेवित रमणीय गंगा नदी का दर्शन करते हुए आगे बढ़ने पर उन्हें मन्दराचल के प्रदेश दिखायी दिये, जो किन्नरों के उच्च स्वर से गाये हुए मधुर गीतों से मुखरित हो रहे थे। (29)
  • सोने और चाँदी के शिखर तथा फूलों से भरे हूए पारिजात के वृक्ष उन पर्वतीय प्रान्तों की शोभा बढ़ा रहे थे तथा भाँति-भाँति की तेजोमयी ओषधियाँ वहाँ अपना प्रकाश फैला रही थीं। (30)
  • वे क्रमश: आगे बढ़ते हुए स्निग्ध कज्जलराशि के समान आकार वाले काल पर्वत के समीप जा पहुँचे। फिर ब्रह्मतुंग पर्वत, अन्यान्य नदियों तथा बहुत-से जनपदों को भी उन्होंने देखा। (31)
  • तदनन्तर क्रमश: उच्चतम शतश्रृंग, शर्यातिवन, पवित्र अश्वशिररःस्थान, आथर्वण, मुनिका स्थान और गिरिराज वृषदंश का अवलोकन करते हुए वे महा-मन्दराचल पर जा पहुँचे, जो अप्सराओं से व्याप्त और किन्नरों से सुशोभित था। (32-33)
  • उस पर्वत के ऊपर से जाते हुए श्रीकृष्ण सहित अर्जुन ने नीचे देखा कि नगरों एवं गाँवों के समुदाय से सुशोभित, सुवर्णमय धातुओं से विभूषित तथा सुन्दर झरनों से युक्त पृथ्वी के सम्पूर्ण अतः चन्द्रमा की किरणों से प्रकाशित हो रहे हैं। (34)
  • बहुत-से रत्नों की खानों से युक्त समुद्र भी अद्भुत आकार- मैं द‍ष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार पृथ्वी, अन्तरिक्ष और आकाश एक साथ दर्शन करके आश्चर्य चकित हुए। अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ विष्णुपद[1] में यात्रा करने लगे। वे धनुष चलाये हुए बाण के समान आगे बढ़ रहे थे। (35-36)
  • तदनन्तर कुन्तीकुमार अर्जुन ने एक पर्वत को देखा, जो अपने तेज से प्रज्जवलित-सा हो रहा था। ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के समान उसकी प्रभा सब ओर फैल रही थी। (37)
  • उस पर्वत पर पहुँचकर अर्जुन ने उसके एक शिखर पर खड़े हुए नित्य तपस्यापरायण परमात्मा भगवान वृषभध्वज दर्शन किया। (38)
  • वे अपने तेज से सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहे थे। उनके हाथ में त्रिशूल, मस्तक पर जटा और श्री अंगों पर वल्कल एवं मृगचर्म के वस्त्र शोभा पा रहे थे। उनकी कान्ति गौरवर्ण की थी। (39)
  • सहस्रों नेत्रों से युक्त उनके श्रीविग्रह की विचित्र शोभा हो रही थी। वे तेजस्वी महादेव अपनी धर्मपत्नी पार्वती जी- के साथ विराजमान थे और तेजोमय शरीर वाले भूतों के समुदाय उनकी सेवा में उपस्थित थे। (40)
  • उनके सम्मुख गीतों और वाद्यों की मधुर ध्वनि हो रही थी। हास्य-लास्य (नृत्य) का प्रदर्शन किया जा रहा था। प्रमथगण उछल-कूदकर बाहें फैलाकर और उच्चस्वर से बोल-बोलकर अपनी कलाओं से भगवान का मनोरंजन करते थे। उनकी सेवा में पवित्र, सुगन्धित पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे। (41)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उच्चतम आकाश

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