महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 80 श्लोक 42-65

अशीतितम (80) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )

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महाभारत: द्रोण पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 42-65 का हिन्दी अनुवाद
  • ब्रह्मवादी महर्षिगण दिव्य स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति कर रह थे। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले वे समस्त प्रणियों के रक्षक भगवान शिव धनुष धारण किये हुए अद्भुत शोभा पा रहे थे। (42)
  • अर्जुन सहित धर्मात्मा वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने उन्हें देखते ही वहाँ की पृथ्वी पर माथा टेकर प्रणाम किया और उन सनातन ब्रह्मस्वरूप भगवान शिव की स्तुति करने लगे। (43)
  • वे जगत के आदि कारण, लोकस्रष्टा, अजन्मा, ईश्‍वर, अविनाशी, मन की उत्पत्ति के प्रधान कारण आकाश एवं वायुस्वरूप, तेज के आश्रय, जल की सृष्टि करने वाले, पृथ्वी के भी परम कारण, देवताओं , दानवों, यक्षों तथा मनुष्यों के भी प्रधान कारण, सम्पूर्ण योगों के परम आश्रय, ब्रह्मवेत्ताओं की प्रत्यक्ष निधि, चराचर जगत की सृष्टि और संहार करने वाले तथा इन्द्र के ऐश्वर्य आदि और सूर्य देव के प्रताप आदि गुणों को प्रकट करने वाले परमात्मा थे। उनके क्रोध में काल का निवास था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने मन, वाणी बुद्धि और क्रियाओं द्वारा उनकी वन्दना की। (40-47)
  • सूक्ष्म अध्यात्म पद की अभिलाषा रखने वाले विद्वान जिनकी शरण लेते है।, उन्हीं कारणस्वरूप अजन्मा भगवान शिव की शरण में श्रीकृष्ण और अर्जुन भी गये। (48)
  • अर्जुन ने उन्हें समस्त भूतों का आदि कारण और भूत, भविष्य एवं वर्तमान जगत का उत्पादक जानकर बारंबार उन महादेव जी के चरणों में प्रणाम किया। (49)
  • उन दोनों नर और नारायण को वहाँ आया देख भगवान शंकर अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर हँसते हुए-से बोले। (50)
  • 'नरश्रेष्ठों। तुम दोनों का स्वागत है। उठो तुम्हारा श्रम दूर हो। वीरो! तुम दोनों के मन की अभीष्ट वस्तु क्या है? यह शीघ्र बताओ। (51)
  • तुम दोनों जिस कार्य से यहाँ आये हो, वह क्या है मैं उसे सिद्ध कर दूँगा। अपने लिये कल्याणकारी वस्तु को माँगो। मैं तुम दोनों को सब कुछ दे सकता हूँ।' (52)
  • भगवान शंकर की यह बात सुनकर अनिन्दित महात्मा परम बुद्धिमान श्रीकृष्ण और अर्जुन हाथ जोड़कर खड़े हो गये और दिव्य स्तोत्र द्वारा भक्तिभाव से उन भगवान शिव की स्तुति करने लगे। (53-54)
  • भव[1], शर्व[2], रुद्र[3][4], वरदाता, पशुपति[5], सदा उग्ररूप में रहने वाले और जटाजूटधारी भगवान शिव को नमस्कार है। (55)
  • महान देवता, भयंकर रूपधारी, तीन नेत्र धारण करने वाले, दक्ष-यज्ञनाशक तथा अन्धकासुर का विनाश करने वाले भगवान शंकर को प्रणाम है। (56)
  • प्रभो! आप कुमार कार्तिकेय के पिता, कण्ठ में नील चिह्न धारण करने वाले, लोकस्रष्टा, पिनाकधारी, हविष्य के अधिकारी, सत्यस्वरूप और सर्वत्र व्यापक हैं आपको सदैव नमस्कार है। (57)
  • विशेष लोहित एवं धूम्रवर्ण वाले, मृगव्याणस्वरूप, समस्त प्राणियों का पराजित करने वाले, सर्वदा नीलकेश धारण करने वाले, त्रिशुलधारी, दिव्यलोचन, संहारक, पालक, त्रिनेत्रधारी पापरूपी मृगों के बधिक, हिरण्यरेता (अग्नि), अचिन्त्य, अम्बिकापति, सम्पूर्ण देवताओं द्वारा प्रशंसित, वृषभ-चिह्न से युक्त ध्वजा धारण करने वाले, मुण्डित मस्तक, जटाधारी, ब्रह्मचारी, जल में तप करने वाले, ब्राह्मणभक्त, अपराजित, विश्वात्मा, विश्वस्रष्टा, विश्व को व्याप्त करके स्थित, सब के सेवन करने योग्य तथा सदा समस्त प्राणियों की उत्पति के कारणभूत आप भगवान शिव को बारंबार नमस्कार है। (58-61)
  • ब्राह्मण जिनके मुख हैं, उन सर्वस्वरूप कल्याणकारी भगवान शिव को नमस्कार है। वाणी के अधीश्रर और प्रजाओं के पालक आप को नमस्कार है। (62)
  • विश्व के स्वामी और महापुरुषों के पालक भगवान शिव को नमस्कार है, जिनके सहस्रों सिर और सहस्रों भुजाएँ हैं, जो मृत्युस्वरूप हैं, जिनके नेत्र और पैर भी सहस्रों की संख्या में हैं तथा जिनके कर्म असंख्य हैं, उन भगवान शिव को नमस्कार है। (63)
  • सुवर्ण के समान जिनका रंग है, जो सुवर्णमय कवच धारण करते हैं, उन आप भक्तवत्सल भगवान को मेरा नित्य नमस्कार है। प्रभो हमारा अभीष्‍ट वर सिद्ध हो। (64)
  • संजय कहते हैं- इस प्रकार महादेव जी की स्तुति करके उस समय अर्जुन सहित भगवान श्रीकृष्ण ने पाशुपतास्त्र- की प्राप्ति के लिये भगवान शंकर को प्रसन्न किया। (65)

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोण पर्व के अन्‍तर्गत प्रतिज्ञापर्व में अर्जुन स्वप्नविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सबकी उत्पत्ति करने वाले
  2. संहारकारी
  3. दुख दूर करने वाले
  4. रुर्दु:खं तद्‌ द्रावयति इति रुद्र:।
  5. जीवों के पालक

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