महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 34 श्लोक 41-61

चतुस्त्रिंश (34) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 41-61 का हिन्दी अनुवाद

पुरुषसिंह! महाराज! इस प्रकार देवताओं द्वारा शत्रुओं का मर्दन करने वाले उस श्रेष्ठ रथ का निर्माण हो जाने पर भगवान शंकर ने उसके ऊपर अपने मुख्य-मुख्य अस्त्र-शस्त्र रख दिये और ध्वजदण्ड को आकाशव्यापी बनाकर उसके ऊपर अपने वृषभ नन्दी को स्थापित कर दिया। तत्पश्चात ब्रह्मदण्ड, कालदण्ड, रुद्रदण्ड तथा ज्वर- ये उस रथ के पार्श्वरक्षक बनकर चारों ओर शस्त्र लेकर खड़े हो गये। अथवा और अंगिरा महात्मा शिव के उस रथ के पहियों की रक्षा करने लगे। ऋग्वेद, सामवेद और समस्त पुराण उस रथ के आगे चलने वाले योद्धा हुए। इतिहास और यजुर्वेद पृष्ठरक्षक हो गये तथा दिव्य वाणी और विद्याएँ पार्श्ववर्ती बनकर खड़ी हो गयीं। राजेन्द्र! स्तोत्र-कवच आदि, वषट्कार तथा ओंकार- ये मुख भाग में स्थित होकर अत्यन्त शोभा बढ़ाने लगे। छहों ऋतुओं से युक्त संवत्सर को विचित्र धनुष बनाकर अपनी छाया को ही महादेव जी ने उस धनुष की प्रत्यंचा बनाई, जो रणभूमि में कभी नष्ट होने वाली नहीं थी।

भगवान रुद्र ही काल हैं, अतः काल का अवयवभूत संवत्सर ही उनका धनुष हुआ। कालरात्रि भी रुद्र का ही अंश है, अतः उसी को उन्होंने अपने धनुष की अटूट प्रत्यंचा बना लिया। भगवान विष्णु, अग्नि और चन्द्रमा- ये ही बाण हुए थे; क्योंकि सम्पूर्ण जगत अग्नि और सोम का ही स्वरूप है। साथ ही सारा संसार वैष्णव (विष्णुमय) भी कहा जाता है। अमित तेजस्वी भगवान शंकर के आत्मा हैं विष्णु। अतः वे दैत्य भगवान शिव के धनुष की प्रत्यंचा एवं बाण का स्पर्श न सह सके। महेश्वर ने उस बाण में अपने असह्य एवं प्रचण्ड कोप को तथा भृगु और अंगिरा के रोष से उत्पन्न हुई अत्यन्त दुःसह क्रोधाग्नि को भी स्थापित कर दिया। तत्पश्चात धूम्रवर्ण, व्याघ्र चर्मधारी, देवताओं को अभय तथा दैत्यों का भय देने वाले, सहस्रों सूर्यों के समान तेजस्वी नीललोहित भगवान शिव तेजोमयी ज्वाला से आवृत हो प्रकाशित होने लगे। जिस लक्ष्य को मार गिराना अत्यन्त कठिन है, उसको भी गिराने में समर्थ, विजयशील, ब्रह्मद्रोहियों के विनाशक भगवान शिव धर्म का आश्रय लेने वाले मनुष्यों की सदा रक्षा और पापियों का विनाश करने वाले हैं।

उनके जो अपने उपयोग में आने वाले रथ आदि गुणवान उपकरण थे, वे शत्रुओं को मथ डालने में समर्थ, भयानक बलशाली, भयंकर रूपधारी और मन के समान वेगवान थे। उनसे घिरे हुए भगवान शिव की बड़ी शोभा हो रही थी। राजन्! उनके पंचभूत स्वरूप अंगों का आश्रय लेकर ही यह अद्भुत दिखायी देने वाला सारा चराचर जगत स्थित एवं सुशोभित है। उस रथ को जुता हुआ देख भगवान शंकर कवच और धनुष से युक्त हो चन्द्रमा, विष्णु और अग्नि से प्रकट हुए उस दिव्य बाण को लेकर युद्ध के लिये उद्यत हुए। राजन! प्रभो! उस समय देवताओं ने पवित्र सुगन्ध वहन करने वाले देवश्रेष्ठ वायु को उनके लिये हवा करने के काम पर नियुक्त किया। तब महादेव जी दानवों के वध के लिये प्रयत्नशील हो देवताओं को भी डराते और पृथ्वी को कम्पित करते हुए से उस रथ को थामकर उस पर चढ़ने लगे। देवेश्वर शिव रथ पर चढ़ना चाहते हैं, यह देखकर महर्षियों, गन्धर्वों, देवसमूहों तथा अप्सराओं ने उनकी स्तुति की। ब्रह्मर्षियों द्वारा वन्दित तथा नाचती हुई नृत्य-कुशल अप्सराओं से सुशोभित होते हुए वरदायक भगवान शिव खड्ग, बाण और धनुष ले देवताओं से हँसते हुए से बोले- ‘मेरा सारथि कौन होगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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