महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 83 श्लोक 41-60

त्र्यशीति (83) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

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महाभारत: उद्योग पर्व: त्र्यशीति अध्याय: श्लोक 41-60 का हिन्दी अनुवाद
  • आप हम पांडवों का समाचार बताते हुए हमारी माँ कुंती से मिलियेगा और प्रणाम करके पुत्र शोक से पीड़ित हुई उस देवी को बहुत-बहुत आश्वासन दीजिए। (41)
  • शत्रुदमन! उसने विवाह करने से लेकर ही अपने श्वसुर के घर में नाना प्रकार के दुःख और कष्ट ही देखे तथा अनुभव किए हैं और इस समय भी वह वहाँ कष्ट ही भोगती है। (42)
  • शत्रुनाशक श्रीकृष्ण! क्या कभी वह समय भी आयेगा, जब हमारे सब दुःख दूर हो जाएँगे और हम लोग दुःख में पड़ी हुई अपनी माता कुंती को सुख दे सकेंगे? (43)
  • जब हम वन को जा रहे थे, उस समय पुत्रस्नेह से व्याकुल हो वह कातरभाव से रोती हुई हमारे पीछे-पीछे दौड़ी आ रही थी, परंतु हम लोग उसे वहीं छोड़कर वन में चले गए। (44)
  • आनर्तदेश के सम्मानित वीर केशव! यह निश्चित नहीं है कि मनुष्य दुःखों से घबराकर मर ही जाता हो। इसलिए कदाचित वह जीवित हो, तो भी पुत्रों की चिंता से अत्यंत पीड़ित ही होगी। (45)
  • प्रभो! मधुसूदन श्रीकृष्ण! आप माता को प्रणाम करके मेरे कथनानुसार धृतराष्ट्र, दुर्योधन, अन्यान्य वयोवृद्ध नरेश, भीष्म, द्रोण, कृप, महाराज बाह्लिक, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, सोमदत्त, समस्त भरतवंशी क्षत्रियवृंद तथा कौरवों के मंत्र की रक्षा करने वाले, मर्मवेत्ता, अगाधबुद्धि एवं महाज्ञानी विदुर के पास जाकर इन सबको हृदय से लगाइयेगा। (46-48)
  • राजाओं के बीच में भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर उनकी परिक्रमा करके आज्ञा ले लौट पड़े। (49)
  • परंतु अर्जुन ने पीछे-पीछे जाते हुए ही शत्रुवीरों का संहार करने वाले अपराजित नरश्रेष्ठ अपने सखा दशार्हकुलनंदन श्रीकृष्ण से कहा- (50)
  • ‘गोविंद! पहले जब हम लोगों में गुप्त मंत्रणा हुई थी, उस समय एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुँचकर हमने आधा राज्य लेकर ही संधि करने का निश्चय किया था, इस बात को सभी राजा जानते हैं। (51)
  • ‘महाबाहो! यदि दुर्योधन लोभ छोड़कर अनादर न करके सत्कारपूर्वक हमें आधा राज्य लौटा दे तो मेरा प्रिय कार्य सम्पन्न हो जाये तथा समस्त कौरव महान भय से छुटकारा पा जाएँ। (52)
  • 'जनार्दन! यदि समुचित उपाय को न जानने वाला धृतराष्ट्र पुत्र इसके विरुद्ध आचरण करेगा तो मैं निश्चय ही उसके पक्ष में आए हुए समस्त क्षत्रियों का संहार कर डालूँगा।' (53)
  • वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पांडुनंदन अर्जुन के ऐसा कहने पर पांडव भीमसेन को बड़ा हर्ष हुआ। वे क्रोधवश बारंबार काँपने लगे। (54)
  • काँपते-काँपते ही कुंतीकुमार भीमसेन बड़े ज़ोर-ज़ोर से सिंहनाद करने लगे। अर्जुन की पूर्वोक्त बातें सुनकर उनका हृदय अत्यंत हर्ष और उत्साह से भर गया था। (55)
  • उनका वह सिंहनाद सुनकर समस्त धनुर्धर भय के मारे थरथर कांपने लगे। उनके सभी वाहनों ने मल-मूत्र कर दिये। (56)
  • इस प्रकार श्रीकृष्ण से वार्तालाप करके उन्हें अपना निश्चय बता गले मिलकर अर्जुन श्रीकृष्ण से आज्ञा ले लौट आए। (57)
  • उन सब राजाओं के लौट जाने पर शैव्य और सुग्रीव आदि से युक्त रथ पर चलने वाले जनार्दन बड़े हर्ष के साथ तीव्र गति से आगे बढ़े। (58)
  • दारुक के हाँकने पर भगवान वासुदेव के वे अश्व इतने वेग से चलने लगे, मानो समस्त मार्ग को पी रहे हों और आकाश को ग्रस लेना चाहते हों। (59)
  • तदनंतर महाबाहु श्रीकृष्ण ने मार्ग में कुछ महर्षियों को उपस्थित देखा, जो रास्ते के दोनों ओर खड़े थे और ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रहे थे। (60)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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