द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-53 का हिन्दी अनुवाद
चान्द्रायण-व्रत के आचरण से मनुष्य के समस्त पाप सूखे काठ की भाँति तुरंत जलकर खाक हो जाते हैं। ब्रह्महत्या, गोहत्या, सुवर्ण की चोरी, भ्रूणहत्या, मदिरापान और गुरु-स्त्री-गमन तथा और भी जितने पाप या पातक हैं, वे चान्द्रायण-व्रत से उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे हवा के वेग से घूल उड़ जाती है। जिस गौ को ब्याये हुए दस दिन भी न हुए हों, उसका दूध तथा ऊँटनी एवं भेड़ का दूध पी जाने पर और मरणाशौच का तथा जननाशौच का अन्न खा लेने पर चान्द्रायण-व्रत का आचरण करे। उपपात की तथा पतित का अन्न और शूद्र का जूठा अन्न खा लेने पर चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। आकाश में लटकते हुए वृक्ष आदि के फलों को, हाथ पर रखे हुए, नीचे गिरे हुए तथा दूसरे के हाथ पर पड़े हुए अन्न को खा लेने पर भी चान्द्रायण-व्रत करे। बड़ी बहन के अविवाहित रहते पहले विवाह कर लेने वाली छोटी बहिन का तथा अपने भाई की विधवा स्त्री से विवाह करने वाले का एवं बड़े भाई के अविवाहित रहते विवाह करने वाले छोटे भाई का ओर अविवाहित बड़े भाई का अन्न, कुण्ड का, गोलोक का और पुजारी का अन्न तथा पुरोहित का अन्न भोजन कर लेने पर भी चान्द्रायण-व्रत करना चाहिये। मदिरा, आसव, विष, घी, नमक और तेल की बिक्री करने वाले ब्राह्मण को भी चान्द्रायण-व्रत करना आवश्यक है। जो द्विज एकोद्दिष्ट श्राद्ध का अन्न खाता है और अधिक मनुष्यों की भीड़ में भोजन करता है तथा फूटे बर्तनों में खाता है, उसे चान्द्रायण-व्रत करना चाहिये। जो उपनयन-संस्कार से रहित बालक, कन्या और स्त्री के साथ (एक पात्र में) भोजन करता है, वह ब्राह्मण चान्द्रायण-व्रत करे। जो मोहवश अपना झूठा दूसरे के भोजन में मिला देता है अथवा मोह के कारण दूसरों को देता है, उस ब्राह्मण को भी चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। यदि द्विज तुम्बा और जिसमें केश पड़ा हो, ऐसा अन्न तथा प्याज, गाजर, छत्राक (कुकुरमुत्ते) और लहसुन को खाले तो उसे चान्द्रायण-व्रत करना चाहिये। यदि ब्राह्मण रजस्वला स्त्री, कुत्ते अथवा चाण्डाल के द्वारा देखा हुआ अन्न खा ले तो उस ब्राह्मण को चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। पाण्डुनन्दन! पूर्वकाल में ऋषियों ने आत्मशुद्धि के लिये इस व्रत का आचरण किया था, यह सब प्राणियों को पवित्र करने वाला और पुण्यरूप बताया गया है। जो द्विज इस पूर्वोक्त पापनाशक व्रत का अनुष्ठान करता है, वह पवित्रात्मा तथा निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक ग्रास और द्वितीय को दो ग्रास भोजन करना चाहिए। इसी तरह पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास भोजन करके कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से चतुर्दशी तक प्रतिदिन एक-एक ग्रास कम करना चाहिए। अमावस्या को उपवास करने पर इस व्रत की समाप्ति होती है। यह एक प्रकार का चांद्रायण है। स्मृतियों- में इसके और भी अनेकों प्रकार उपलव्ध होते हैं।
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