महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 37-53

षट्त्रिंश (36) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (पुत्रदर्शन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: षट्त्रिंश श्लोक 37-53 का हिन्दी अनुवाद


"भरतश्रेष्ठ! मुझमें माता जी को छोड़कर जाने का साहस नहीं है। प्रभो! आप शीघ्र लौट जायें। मैं यहीं रहकर तपस्या करूँगा और तप के द्वारा अपने शरीर को सुखा डालूँगा। मैं यहाँ महाराज और इन दोनों माताओं के चरणों की सेवा में ही अनुरक्त रहना चाहता हूँ।"

यह सुनकर कुन्ती ने महाबाहु सहदेव को छाती से लगा लिया और कहा- "बेटा! ऐसा न कहो। तुम मेरी बात मानो और चले जाओ। पुत्रो! तुम्हारे मार्ग कल्याणकारी हों और तुम सदा स्वस्थ रहो। तुम लोगों के रहने से हम लोगों की तपस्या में विघ्‍न पड़ेगा। मैं तुम्हारे स्नेहपाश में बँधकर उत्तम तपस्या से गिर जाऊँगी, अतः सामर्थ्‍यशाली पुत्र! चले जाओ। अब हम लोगों की आयु बहुत थोड़ी रह गयी है।"

राजेन्द्र! इस तरह अनेक प्रकार की बातें कहकर कुन्ती ने सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर के मन को धीरज बँधाया। माता तथा धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर कुरुश्रेष्ठ पांडवों ने कुरुकुल तिलक धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उनसे विदा लेने के लिये इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- "महाराज! आपके आशीर्वाद से आनन्दित होकर हम लोग कुशलपूर्वक राजधानी लौट जायेंगे। राजन! इसके लिये आप हमें आज्ञा दें। आपकी आज्ञा पाकर हम पापरहित हो यहाँ से यात्रा करेंगे।"

महात्मा धर्मराज के ऐसा कहने पर राजर्षि धृतराष्ट्र ने कुरुनन्दन युधिष्ठिर का अभिनन्दन करके उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। इसके बाद राजा धृतराष्ट्र ने बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन को सान्त्वना दी। बुद्धिमान एंव पराक्रमी भीमसेन ने भी उनकी बातों को यथार्थरूप से ग्रहण किया और हृदय से स्‍वीकार किया। तदनन्तर धृतराष्ट्र ने अर्जुन और पुरुष प्रवर नकुल-सहदेव को छाती से लगा उनका अभिनन्दन करके विदा किया। इसके बाद उन पांडवों ने गांधारी के चरणों में प्रणाम करके उनकी आज्ञा ली।

फिर माता कुन्ती ने उन्हें हृदय से लगाकर उनका मस्तक सूँघा। जैसे बछड़े अपनी माता का दूध पीने से रोके जाने पर बार-बार उसकी ओर देखते हुए उसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं, उसी प्रकार पांडवों ने राजा तथा माता की ओर बार-बार देखते हुए उन नरेश की परिक्रमा की। द्रौपदी आदि समस्त कौरव स्त्रियों ने अपने श्वशुर को न्यायपूर्वक प्रणाम किया। फिर दोनों सासुओं ने उन्हें गले से लगाकर आशीर्वाद दे, जाने की आज्ञा दी और उन्हें उनके कर्तव्य का उपदेश भी दिया। तत्पश्चात वे अपने पतियों के साथ चली गयीं। तदनन्तर सारथियों 'रथ जोतो, रथ जोतो' की पुकार मचायी। फिर ऊँटों के चिग्घाड़ने और घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ हुई। इसके बाद अपने घर की स्त्रियों, भाइयों और सैनिकों के साथ राजा युधिष्ठिर पुनः हस्तिनापुर नगर को लौट आये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत पुत्रदर्शन पर्व में युधिष्ठिर का प्रत्यागमन विषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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