महाभारत आदि पर्व अध्याय 1 श्लोक 95-115

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 95-115 का हिन्दी अनुवाद


पहले की बात है- शाक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने अपने माता सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्म पितामह की आज्ञा से विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बिका आदि के गर्भ से तीन अग्नियों के समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं- धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर

इस महाभारत ग्रन्‍थ में व्‍यास जी ने कुरु वंश के विस्‍तार, गान्धारी की धर्मशीलता, विदुर की उत्तम प्रज्ञा और कुन्‍ती देवी के धैर्य का भली-भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान व्यास ने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्‍ण के माहात्मय, पाण्‍डवों की सत्‍यपरायणता तथा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन आदि के दुर्व्‍यवहारों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है। पुण्‍यकर्मा मानवों के उपाख्‍यानों सहित एक लाख श्‍लोकों के इस उत्तरग्रन्‍थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्‍तर व्‍यास जी ने उपाख्‍यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्‍लोकों की 'भारत संहिता' बनायी; जिसे विद्वान पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्‍थ में वर्णित वृत्तान्‍तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्‍त अध्‍याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्‍लोक हैं। व्‍यास जी ने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव जी को इस महाभारत ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया। तदनन्‍तर उन्‍होंने दूसरे सुयोग्‍य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्‍यों को इसका उपदेश दिया।

तत्‍पश्चात भगवान व्‍यास ने साठ लाख श्‍लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्‍लोक देवलोक में समादृत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्‍धर्वलोक में चौदह लाख श्‍लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्‍य लोक में एक लाख श्‍लोकों का आद्य भारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारद ने देवताओं को और असित देवल ने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसों को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्‍तु इस मनुष्‍य लोक में सम्‍पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्‍यास शिष्‍य धर्मात्‍मा वैशम्पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरों! वही एक लाख श्‍लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है। कर्ण स्‍कन्‍ध, शकुनि शाखा और दु:शासन समृद्ध फल पुष्‍प है। अज्ञानी राजा धृतराष्‍ट्र ही इसके मूल हैं।[1]

युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्‍कन्‍ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्‍दन इसके समृद्ध फल पुष्‍प हैं। श्रीकृष्‍ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं।[2] महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्‍वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्‍होंने मृगरूपधारी महर्षि को मैथुनकाल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्‍त्री सहवास करने पर तुम्‍हारी मृत्‍यु हो जायेगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्‍डवों के जन्‍म से लेकर जात-कर्म आदि सब संस्‍कार वन में ही हुए और वहीं उन्‍हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश प्राप्त हुआ। पूर्वोक्‍त शाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये दुर्वासा द्वारा प्राप्‍त हुई विद्या का आश्रय लेने के कारण पाण्‍डवों की दोनों माताओं कुन्ती और माद्री के समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्‍द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार- इन देवताओं का आगमन सम्‍भव हो सका।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह और इसके बाद का श्‍लोक महाभारत के तात्‍पर्य के सूचक हैं। दुर्योधन क्रोध है। यहाँ क्रोध शब्‍द से द्वेष-असूया आदि दुर्गुण भी समझ लेने चाहिये। कर्ण, शकुनि, दु:शासन आदि उससे एकता को प्राप्‍त है, उसी के स्‍वरूप हैं। इन सबका मूल है राजा धृतराष्ट्र। यह अज्ञानी अपने मन को वश में करने में असमर्थ है। इसी ने पुत्रों की आसक्ति में अंधे होकर दुर्योधन को अवसर दिया,जिससे उसकी जड़ मजबूत हो गयी। यदि यह दुर्योधन को वश में कर लेता अथवा बचपन में ही विदुर आदि की बात मानकर इसका त्‍यागकर देता तो विष-दान, लाक्षागृह दाह, द्रौपदी-केशाकर्षण आदि दुष्‍कर्मों का अवसर ही नहीं आता और कुलक्ष्य न होता। इस प्रसंग से यह भावसूचित किया गया है कि यह जो मन्यु (दुर्योधन) रूप वृक्ष है, इसका दृढ़ अज्ञान ही मूल है, क्रोध लोभादि स्‍कन्‍ध हैं, हिंसा-चोरी आदि शाखाएँ हैं और बन्‍धन नरकादि इसके फल-पुष्प है। पुरुषार्थ कामी पुरुष को मूलाज्ञान का उच्‍छेद करके पहले ही इस (क्रोध रूप) वृक्ष को नष्‍ट कर देना चाहिये।
  2. युधिष्ठिर धर्म हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे शम, दम, सत्‍य, अंहिसा आदि रूप धर्म की मूर्ति हैं। अर्जुन-भीम आदि को धर्म की शाखा बतलाने का अभिप्राय यह है कि वे सब युधिष्ठिर के ही स्‍वरूप हैं, उनसे अभिन्न हैं, शुद्धसत्त्वमय शान‍ विग्रह श्रीकृष्‍णरूप परमात्‍मा ही उसके मूल हैं। उनकी दृढ़ शान से ही धर्म की नींव मजबूत होती है। श्रुति भगवती ने कहा है कि ‘हे गार्गी! इस अविनाशी परमात्‍मा को जाने बिना इस लोक में जो हजारों वर्ष पर्यन्‍त यज्ञ करता है, दान देता है, तपस्‍या करता है, उन सबका फल नाशवान ही होता है।’ ज्ञान का मूल है ब्रह्म अर्थात वेद। वेद से ही परमधर्म योग और अपार धर्मयज्ञ योगादि ज्ञान होता है। यह निश्चित सिद्धान्‍त है कि धर्म का मूल केवल शब्‍द प्रमाण ही है। वेद के भी मूल ब्राह्मण हैं; क्‍योंकि वे ही वेद सम्‍प्रदाय के प्रवर्तक हैं। इस प्रकार उपदेशक के रूप में ब्राह्मण, प्रमाण के रूप में वेद और अनुग्राहक के रूप में परमात्‍मा धर्म का मूल है। इससे यह बात सिद्ध हुई है कि वेद और ब्राह्मण का भक्‍त अधिकारी पुरुष भगवद् आराधन के बल से योगादि रूप धर्ममय वृक्ष का सम्‍पादन करे। उस वृक्ष के अहिंसा, सत्‍य आदि तने हैं। धारण, ध्‍यान आदि शाखाएँ हैं और तत्‍व साक्षात्‍कार ही उसका फल है। इस धर्ममय वृक्ष के समाश्रय से ही पुरुषार्थ की सिद्धि होती है, अन्‍यथा नहीं।

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