महाभारत आदि पर्व अध्याय 1 श्लोक 146-159

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 146-159 का हिन्दी अनुवाद


राजसूय-यज्ञ में महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की सर्वोपरि समृद्धि, सम्पत्ति देखकर तथा सभा भवन की सीढ़ियों पर चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पाण्डवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्ध के लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परन्तु पाण्डवों की उस उत्तम सम्पत्ति को हथियाने के लिये उसने गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जुआ खेलने का निश्चय हो जाने पर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समय पर विजय की आशा के विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो। सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनों को सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ।

संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरती पर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओं के सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदी को ले आया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। संजय! तब मैंने सुना कि अर्जुन ने द्वारका में मधुवंश की राजकुमारी (और श्रीकृष्ण की बहिन) सुभद्रा का बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटना का विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ में आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाह के समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुन ने उसे अपने दिव्य बाणों से रोक दिया तथा अग्नि देव को तृप्त किया। संजय! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती।

जब मैंने सुना कि लाक्षाभवन से अपनी माता सहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थ सिद्धि के प्रयत्न में तत्पर हैं। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि रंगभूमि में लक्ष्य-बेध करके अर्जुन ने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं। संजय! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि क्षत्रिय जाति के जाज्वल्यमान रत्न जरासन्ध को भीमसेन ने उसकी राजधानी में जाकर बिना अस्त्र-शस्त्र हाथों से ही चीर दिया। संजय! मेरी जीत की आशा तो तभी टूट गयी। जब मैंने सुना कि दिग्विजय के समय पाण्डवों ने बलपूर्वक बड़े-बडे़ भूमिपतियों को अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया, संजय! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजय की कोई आशा नहीं है।

संजय! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्था में आँखों में आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियों के रहते हुए भी अनाथ के समान भरी सभा में घसीट कर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्द बुद्धि दुःशासन ने द्रौपदी का वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रों का इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका, संजय! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर को जूए में शकुनि ने हरा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाईयों ने युधिष्ठिर का अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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