द्विसप्तत्यधिकशततम (172) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्विसप्तत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद
वसिष्ठ जी ने कहा- विभावसो! यह जो आपकी तपती नाम की पुत्री एवं सावित्री की छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरण के लिये मांगता हूँ। उस राजा की कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा उदार बुद्धि वाले हैं; अत: आकाशचारी सूर्यदेव! महाराज संवरण आपकी पुत्री के लिये सुयोग्य पति होंगे। वसिष्ठ जी यों कहने पर अपनी कन्या देने का निश्चय करके भगवान सूर्य ने ब्रह्मर्षि का अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा- मुने! संवरण राजाओं में श्रेष्ठ हैं, आप महर्षियों में उत्तम हैं और तपती युवतियों में सर्वश्रेष्ठ है; अत: उसके दान से श्रेष्ठ और क्या हो सकता है। तदनन्तर साक्षात् भगवान सूर्य ने अनिन्द्य सुन्दरी तपती को राजा संवरण की पत्नी होने के लिये महात्मा वसिष्ठ को अर्पित कर दिया। ब्रहर्षि वसिष्ठ ने उस कन्या को ग्रहण किया और वहाँ से विदा होकर वे तपती के साथ पुन: उस स्थान पर आये, जहाँ विख्यातकीर्ति, कुरुवंशियों में श्रेष्ठ राजा संवरण काम के वशीभूत हो मन-ही-मन तपती का चिन्तन करते हुए बैठे थे। मनोहर मुस्कान वाली देव कन्या तपती को वसिष्ठ जी के साथ आती देख राजा संवरण अत्यन्त हर्षोल्लास से युक्त हो अधिक शोभा पाने लगे। सुन्दर भौंहों वाली तपती आकाश से पृथ्वी पर आते समय गिरी हुई बिजली के समान सम्पूर्ण दिशाओं को अपनी प्रभा से प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही थी। राजा ने क्लेश सहन करते हुए बारह रात तक एकाग्रचित्त होकर ध्यान लगाया था। तब विशुद्ध अन्त:करण वाले भगवान वसिष्ठ मुनि राजा के पास आये थे। सबके अधीश्वर वरदायक देवशिरोमणी भगवान सूर्य को तपस्या द्वारा प्रसन्न करके महाराज संवरण ने वसिष्ठ जी के ही तेज से तपती को पत्नी रुप में प्राप्त किया। तदनन्तर उन नरश्रेष्ठ ने देवताओं और गन्धर्वों से सेवित उस उत्तम पर्वत पर विधिपूर्वक तपती का पाणिग्रहण किया। उसके बाद वसिष्ठ जी की आज्ञा लेकर राजर्षि संवरण ने उसी पर्वत पर अपने पत्नी के साथ विहार करने की इच्छा की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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