महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 17-34

द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम (172) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद


उक्‍त महाराज के देखते-देखते सूर्य के समान तेजस्‍वी भगवान वसिष्ठ मुनि सूर्यदेव से मिलने के लिये ऊपर को गये। ब्रह्मर्षि वसिष्ठ दोनों हाथ जोड़कर सहस्रों किरणों से सुशोभि‍त भगवान् सूर्यदेव के समीप गये और 'मैं वसिष्ठ हूं' यों कहकर उन्‍होंने बड़ी प्रसन्‍नता से अपना समाचार निवेदित किया। फिर वसिष्ठ जी बोले- जो अजन्‍मा, तीनों लोकों को पवित्र करने वाले, समस्‍त प्राणियों के अन्‍तर्यामी, किरणों के अधिपति, धर्मस्‍वरुप, सृष्ठि और प्रलय के अधि‍ष्ठान तथा परम दयालु देवताओं में सर्वश्रेष्‍ठ हैं, उन भगवान सूर्य को नमस्‍कार है। जो ज्ञानियों के अन्‍तरात्‍मा, जगत् को प्रकाशित करने वाले, संसार के हितैषी, स्‍वयम्‍भू तथा सहस्रों उद्दीप्‍त नेत्रों से सुशोभि‍त हैं, उन अमित तेजस्‍वी सुरश्रेष्ठ भगवान् सूर्य को नमस्‍कार है। जो जगत् के एकमात्र नेत्र हैं, संसार की सृष्टि, पालन ओर संहार के हेतु हैं, तीनों वेद जिनके स्‍वरुप हैं, जो त्रिगुणात्‍मक स्‍वरुप धारण करके ब्रह्म, विष्णु और शिव नाम से प्रसिद्ध हैं, उन भगवान् सविता को नमस्‍कार है। तब महातेजस्‍वी भगवान् सूर्य ने मुनिवर वसिष्ठ से कहा- 'महर्षे! तुम्‍हारा स्‍वागत है! तुम्‍हारी जो अभिलाषा हो, उसे कहो। वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ महाभाग! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, तुम्‍हारी वह अभीष्ट वस्‍तु कितनी हो दुर्लभ क्‍यों न हो, तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा। उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षे! तुमने जो मेरा स्‍तवन किया है, इसके लिये मैं वर देने का उद्यत हूं, कोई वर मांगो। तुम्‍हारे द्वारा कही हुई वह स्‍तुति भक्‍तों के लिये निरन्‍तर जप करने योग्‍य है। मैं तुम्‍हें वर देना चाहता हूँ। उनके यों कहने पर महातपस्‍वी मुनिवर वसिष्ठ मरीचिमाली भगवान् भास्‍कर को प्रणाम करके इस प्रकार बोले।

वसिष्ठ जी ने कहा- विभावसो! यह जो आपकी तपती नाम की पुत्री एवं सावित्री की छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरण के लिये मांगता हूँ। उस राजा की कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा उदार बुद्धि वाले हैं; अत: आकाशचारी सूर्यदेव! महाराज संवरण आपकी पुत्री के लिये सुयोग्‍य पति होंगे। वसिष्ठ जी यों कहने पर अपनी कन्‍या देने का निश्‍चय करके भगवान सूर्य ने ब्रह्मर्षि का अभिनन्‍दन किया और इस प्रकार कहा- मुने! संवरण राजाओं में श्रेष्ठ हैं, आप महर्षियों में उत्‍तम हैं और तपती युवतियों में सर्वश्रेष्‍ठ है; अत: उसके दान से श्रेष्‍ठ और क्‍या हो सकता है। तदनन्‍तर साक्षात् भगवान सूर्य ने अनिन्‍द्य सुन्‍दरी तपती को राजा संवरण की पत्‍नी होने के लिये महात्‍मा वसिष्ठ को अर्पित कर दिया। ब्रहर्षि‍ वसिष्ठ ने उस कन्‍या को ग्रहण किया और वहाँ से विदा होकर वे तपती के साथ पुन: उस स्‍थान पर आये, जहाँ विख्‍यातकीर्ति, कुरुवंशियों में श्रेष्ठ राजा संवरण काम के वशीभूत हो मन-ही-मन तपती का चिन्‍तन करते हुए बैठे थे।

मनोहर मुस्‍कान वाली देव कन्‍या तपती को वसिष्ठ जी के साथ आती देख राजा संवरण अत्‍यन्‍त हर्षोल्‍लास से युक्‍त हो अधिक शोभा पाने लगे। सुन्‍दर भौंहों वाली तपती आकाश से पृथ्‍वी पर आते समय गिरी हुई बिजली के समान सम्‍पूर्ण दिशाओं को अपनी प्रभा से प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही थी। राजा ने क्‍लेश सहन करते हुए बारह रात तक एकाग्रचित्‍त होकर ध्‍यान लगाया था। तब विशुद्ध अन्‍त:करण वाले भगवान वसिष्ठ मुनि राजा के पास आये थे। सबके अधीश्‍वर वरदायक देवशिरोमणी भगवान सूर्य को तपस्‍या द्वारा प्रसन्‍न करके महाराज संवरण ने वसिष्ठ जी के ही तेज से तपती को पत्‍नी रुप में प्राप्‍त किया। तदनन्‍तर उन नरश्रेष्ठ ने देवताओं और गन्‍धर्वों से सेवित उस उत्‍तम पर्वत पर विधि‍पूर्वक तपती का पाणिग्रहण किया। उसके बाद वसिष्ठ जी की आज्ञा लेकर राजर्षि संवरण ने उसी पर्वत पर अपने पत्‍नी के साथ विहार करने की इच्‍छा की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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