महाभारत आदि पर्व अध्याय 172 श्लोक 35-50

द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम (172) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्विसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 35-50 का हिन्दी अनुवाद


उन दिनों भूपाल ने नगर, राष्‍ट्र, वन तथा उपवनों की देख-भाल एवं रक्षा के लिये मन्‍त्री को ही आदेश देकर विदा किया। वसिष्ठ जी भी राजा से विदा ले अपने स्‍थान को चले गये। तदनन्‍तर राजा संवरण उस पर्वत पर देवता की भाँति विहार करने लगे। वे उसी पर्वत के वनों और काननों में अपनी पत्‍नी के साथ उसी प्रकार बाहर वर्षों तक रमण करते रहे। अर्जुन! उन दिनों महाराज संवरण के राज्‍य और नगर में इन्‍द्र ने बाहर वर्षों तक वर्षा नहीं की। शत्रुसूदन! उन अनावृष्टि के समय प्राय: स्‍थावर एवं जगम सभी प्रकार की प्रजा का क्षय होने लगा। ऐसे भयंकर समय में पृथ्‍वी पर ओस की एक बूंद तक न गिरी। परिणाम यह हुआ कि खेती उगती ही नहीं थी। तब सभी लोगों का चित्‍त व्‍याकुल हो उठा। मनुष्‍य भूख के भय से पीड़ित हो घरों को छोड़कर दिशा-विदिशाओं में मारे-मारे फिरने लगे। फिर तो उस नगर और राष्‍ट्र के लोग क्षुधा से पीड़ित हो सनातन मर्यादा को छोड़कर स्‍त्री, पुत्र एवं परिवार आदि का त्‍याग करके परस्‍पर एक दूसरे को मारने और लूटने-खंसोट ने लगे। राजा का नगर ऐसे लोगों से भर गया, जो भूख से आतुर हो उपवास करते-करते मुर्दों के समान हो रहे थे। उन नर-कंकालों से परिपूर्ण वह नगर प्रेतों से घिरे हुए यमराज के निवास-स्‍थान सा जान पड़ता था। प्रजा की ऐसी दुरवस्‍था देख धर्मात्‍मा मुनिश्रेष्‍ठ भगवान वसिष्‍ठ ने ही (अपने तपोबल से) उस राज्‍य में वर्षा की। साथ ही वे नृपश्रेष्‍ठ संवरण को, जो बहुत वर्षों से प्रवासी हो रहे थे, तपती के साथ नगर में लग लाये।

उन के आने पर दैत्‍यहन्‍ता देवराज इन्‍द्र वहाँ पूर्ववत् वर्षा करने लगे। उन श्रेष्‍ठ राजा के नगर में प्रवेश करने पर भगवान इन्‍द्र ने वहाँ अन्‍न का उत्‍पादन बढ़ाने के लिये पुन: अच्‍छी वर्षा की। तब से शुद्ध अन्‍तकरण वाले नृपश्रेष्‍ठ संवरण के द्वारा पालित सब लोग प्रसन्‍न रहने लगे। उस राज्‍य और नगर में बड़ा आनन्‍द छा गया। तदनन्‍तर तपती के सहित महाराज संवरण ने शची के साथ इन्‍द्र के समान सुशोभित होते हुए बारह वर्षों तक यज्ञ किया। गन्‍धर्व कहता है- कुन्‍तीनन्‍दन! इस प्रकार भगवान सूर्य की पुत्री महाभागा तपती आपके पूर्वपुरुष संवरण की पत्‍नी हुई थी, जिससे मैंने आपको तपतीनन्‍दन माना है। तपस्‍वीजनों में श्रेष्ठ अर्जुन! महाराज संवरण ने तपती के गर्भ से कुरु को उत्‍पन्‍न किया था; अत: उसी वंश में जन्‍म लेने के कारण आप लोग तापत्‍य हुए। भरतश्रेष्‍ठ! उन्‍हीं कुरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण आप सब लोग कौरव तथा कुरुवंशी कहलाते हैं। इसी प्रकार पूरु से उत्‍पन्‍न होने के कारण पौरव, अजमीढ़ कुल में जन्‍म लेने से आजमीढ़ तथा भरतकुल में उत्‍पन्‍न होने से भारत कहलाते हैं। इस प्रकार आप लोगों की वंश जननी तपती का सारा पुरातन वृत्‍तान्‍त मैंने बता दिया। अब आप लोग पुरोहित को आगे रखकर इस पृथ्‍वी का पालन एवं उपभोग करें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथ पर्व में तपती-उपाख्‍यान की समाप्ति से सम्‍बन्‍ध रखने वाला एक सौ बहत्तरवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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