महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 91 श्लोक 20-45

एकनवतितम (91) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 20-45 का हिन्दी अनुवाद


उनके चिंतन करते ही तपोधन अत्रि वहाँ आ पहुँचे। आने पर जब अविनाशी अत्रि ने निमि को पुत्र शोक से व्याकुल देखा, तब मधुर वाणी द्वारा उन्हें बहुत आश्‍वासन दिया। 'तपोधन निमे! तुमने जो यह पितृयज्ञ किया है, इससे डरो मत। सबसे पहले स्‍वयं ब्रह्मा जी ने इस धर्म का साक्षात्कार किया है। अतः तुमने यह ब्रह्मा जी के चलाये हुए धर्म का ही अनुष्ठान किया है। ब्रह्मा जी के सिवा दूसरा कौन इस श्राद्ध-विधि का उपदेश कर सकता है। बेटा! अब मैं तुमसे स्वयंभू ब्रह्मा जी की बतायी हुई श्राद्ध की उत्तम विधि का वर्णन करता हूँ, इसे सुनो और सुनकर इसी विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करो।'

तब तपोधन! पहले वेदमंत्र के उच्चारणपूर्वक अग्नौकरण-अग्निकरण की क्रिया पूरी करके अग्नि, सोम, वरुण और पितरों के साथ नित्य रहने वाले विश्वेदेवों को उनका भाग सदा अर्पण करें। साक्षात ब्रह्मा जी ने इनके भागों की कल्पना की है। तदनन्तर श्राद्ध की आधारभूता पृथ्वी की वैष्णवी, काश्यपी और अक्षय आदि नामों से स्तुति करनी चाहिये।

अनघ! श्राद्ध के लिये जल लाने के लिये भगवान वरुण का स्तवन करना उचित है। इसके बाद तुम्हें अग्नि और सोम को भी तृप्त करना चाहिये। ब्रह्मा जी के ही उत्पन्न किये हुए कुछ देवता पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन महाभाग पितरों को उष्णप भी कहते हैं। स्वयंभू ने श्राद्ध में उनका भाग निश्चित किया है। श्राद्ध के द्वारा उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पितरों का पाप से उद्धार हो जाता है। ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में जिन अग्निष्वात्त आदि पितरों को श्राद्ध का अधिकारी बताया है, उनकी संख्या सात है।

विश्वेदेवों की चर्चा तो मैंने पहले ही की है, उन सबका मुख अग्नि है। यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी उन महात्माओं के नामों को कहता हूँ। बल, धृति, विपाप्मा, पुण्यकृत, पावन, पार्ष्णिक्षेमा, समूह, दिव्यसानु, विवस्वान, वीर्यवान, ह्रीमान, कीर्तिमान, कृत, जितात्मा, मनुवीर्य, दीप्तरोमा, भयंकर, अनुकर्मा, प्रतीत, प्रदाता, अंशुमान, शैलाभ, परमक्रोधी, धीरोष्णी, भूपति, स्त्रज, वज्री, वरी, विश्वेदेव, विद्युद्वर्चा, सोमवर्चा, सूर्यश्री, सोमप, सूर्यसावित्र, दत्तात्मा, पुण्डरीयक, उष्णीनाभ, नभोद, विश्वायु, दीप्ति, चमूहर, सुरेश, व्योमारि, शंकर, भव, ईश, कर्ता, कृति, दक्ष, भुवन, दिव्यकर्मकृत, गणित, पंचवीर्य, आदित्य, रश्मिवान, सप्तकृत, सोमवर्चा, विश्वकृत, कवि, अनुगोप्ता, सगोप्ता, नप्ता, और ईश्‍वर। इस प्रकार सनातन विश्‍वेदेवों के नाम बतलाये गये। ये महाभाग काल की गति के जानने वाले कहे गये हैं।

अब श्राद्ध में निषिद्ध अन्न आदि वस्तुओं का वर्णन करता हूँ। अनाज में कोदो और पुलक-सरसों, हिंगुद्रव्य- छौंकने के काम अपने वाले पदार्थों में हींग आदि पदार्थ, शाकों में प्याज, लहसुन, सहिजन, कचनार, गाजर, कुम्हडा और लौकी आदि; काला नमक, गांव में पैदा होने वाले वाराहीकन्द का गूदा, अप्रोक्षित- जिसका प्रोक्षण नहीं किया गया (संस्कारहीन), काला जीरा, बीरिया सौंचर नमक, शीतपाकी (शाक विशेष), जिसमें अंकुर उत्पन्न हो गये हों ऐसे मूंग और सिंघाड़ा आदि। ये वस्तुएँ श्राद्ध में वर्जित हैं। सब प्रकार का नमक, जामुन का फल तथा छींक या आँसू से दूषित हुए पदार्थ भी श्राद्ध में त्याग देने चाहियें। श्राद्ध-विषयक हव्य-कव्य में सुदर्शन सोमलता निन्दित है। उस हवि को विश्‍वेदेव एवं पितृगण पसंद नहीं करते हैं।

पिण्डदान का समय उपस्थित होने पर उस स्थान से चाण्डालों और श्वपचों को हटा देना चाहिये। गेरुआ वस्त्र धारण करने वाला संन्न्यासी, कोढ़ी, पतित, ब्रह्मत्यारा, वर्णसंकर ब्राह्मण तथा धर्मभ्रष्ट सम्बन्धी भी श्राद्धकाल उपस्थित होने पर विद्वानों द्वारा वहाँ से हटा देने योग्य हैं। पूर्वकाल में अपने वंशज निमि ऋषि को श्राद्ध के विषय में यह उपदेश देकर तपस्या के धनी भगवान अत्रि ब्रह्मा जी की दिव्य सभा में चले गये।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्म पर्व में श्राद्धकल्प विषयक इक्यानबेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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