महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 83 श्लोक 25-52

त्र्यशीतितमो (83) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

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महाभारत: अनुशासनपर्व: त्र्यशीतितमो अध्याय: श्लोक 25-52 का हिन्दी अनुवाद


तात! पहले सत्ययुग में जब महामना देवेश्‍वरगण तीनों लोकों पर शासन करते थे और अमरश्रेष्ठ! जब देवी अदिति पुत्र के लिये नित्य एक पैर से खड़ी रहकर अत्यन्त घोर एवं दुष्कर तपस्या करती थीं और उस तपस्या से संतुष्ट होकर साक्षात भगवान विष्णु ही उनके गर्भ में पदार्पण करने वाले थे, उन्हीं दिनों की बात है, महादेवी अदिति को महान तप करती देख दक्ष की धर्मपरायण पुत्री सुरभि देवी ने बड़े हर्ष के साथ घोर तपस्या आरंभ की। कैलास के रमणीय शिखर पर जहाँ देवता और गन्धर्व सदा विराजित रहते हैं, वहाँ वह उत्तम योग का आश्रय ले ग्यारह हज़ार वर्षों तक एक पैर से खड़ी रही। उसकी तपस्या से देवता, ऋषि और बड़े-बड़े नाग भी संतप्त हो उठे। वे सब लोग मेरे साथ ही सुभलक्षिणा तपस्विनी सुरभि देवी के पास जाकर खड़े हुए। तब मैंने वहाँ उससे कहा- 'सती-साध्वी देवी! तुम किसलिये यह घोर तपस्या करती हो? शोभने! महाभागे! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। देवी! तू इच्छानुसार वर माँग।' पुरन्दर! इस तरह मैंने सुरभि को वर माँगने के लिये प्रेरित किया।

सुरभि ने कहा- 'भगवन! निष्पाप लोक पितामह! मुझे वर लेने की कोई आवश्‍यकता नहीं है। मेरे लिये तो सबसे बड़ा वर यही है कि आज आप मुझ पर प्रसन्न हो गये हैं।'

ब्रह्मा जी ने कहा- देवेश्‍वर! देवन्द्र! शचीपते! जब सुरभि ऐसी बात कहने लगी, तब मैंने उसे जो उत्तर दिया वह सुनो।

ब्रह्मा जी ने कहा- देवी! सुभानने! तुमने लोभ और कामना को त्याग दिया है। तुम्हारी इस निष्काम तपस्या से मैं बहुत प्रसन्न हूँ; अतः तुम्हें अमरत्व का वरदान देता हूँ। तुम मेरी कृपा से तीनों लोकों के ऊपर निवास करोगी और तुम्हारा वह धाम ‘गोलोक’ नाम से विख्यात होगा। महाभागे! तुम्हारी सभी शुभ संतानें, समस्त पुत्र और कन्याएँ मानवलोक में उपयुक्त कर्म करती हुई निवास करेंगी। देवी! शुभे! तुम अपने मन से जिन दिव्य अथवा मानवी भोगों का चिंतन करोगी तथा जो स्वर्गीय सुख होगा, वे सभी तुम्हें स्वतः प्राप्त होते रहेंगे। सहस्राक्ष! सुरभि के निवास भूत गोलोक में सबकी सम्पूर्ण कामनाऐं पूर्ण होती हैं। वहाँ मृत्यु और बुढ़ापा का आक्रमण नहीं होता है। अग्नि का भी जोर नहीं चलता। वासव! वहाँ न कोई दुर्भाग्य है और न अशुभ। वहाँ दिव्य वन, भवन तथा परम सुन्दर एवं इच्छानुसार विचरने वाले विमान मौजूद हैं। कमलनयन इन्द्र! ब्रह्मचर्य, तपस्या, यत्न, इन्द्रियसंयम, नाना प्रकार के दान, पुण्य, तीर्थ सेवन, महान तप और अनान्य शुभकर्मों के अनुष्ठान से ही गोलोक की प्राप्ति हो सकती है। असुरसूदन शक्र! इस प्रकार तुम्हारे पूछने के अनुसार मैंने सारी बातें बतलायी हैं। अब तुम्हें गौओं का कभी तिरस्कार नहीं करना चाहिये।

भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्रह्मा जी का यह कथन सुनकर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र प्रतिदिन गौओं की पूजा करने लगे। उन्होंने उनके प्रति बहुत सम्मान प्रकट किया। महाघुते! यह सब मैंने तुमसे गौओं का परम पावन, परम पवित्र और अत्यन्त उत्तम माहात्मय कहा है। पुरुषसिंह! यदि इसका कीर्तन किया जाये तो यह समस्त पापों से छुटकारा दिलाने वाला हैं। जो एकाग्रचित्त हो सदा यज्ञ और श्राद्ध में हव्य और कव्य अर्पण करते समय ब्राह्मणों को यह प्रसंग सुनायेगा, उसका दिया हुआ (हव्य और कव्य) समस्त कामनाओं का पूर्ण करने वाला और अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होगा। गौभक्त मनुष्य जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, वह सब उसे प्राप्त होती हैं। स्त्रियों में जो भी गौओं की भक्ता है, वे मनोवांछित कामनाऐं प्राप्त कर लेती हैं। पुत्रार्थी मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या। धन चाहने वालों को धन और धर्म चाहने वालों को धर्म प्राप्त होता है। विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख। भारत! गौभक्त के लिये यहाँ कुछ भी दुर्लभ नहीं है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्‍तर्गत दानधर्मपर्वमें गोलाक का वर्णन विषयक तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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