महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 54 श्लोक 26-42

चतुःपंचाशत्तम (54) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)

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महाभारत: द्रोण पर्व: चतुःपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 26-42 का हिन्दी अनुवाद
  • तदनन्‍तर पुष्कर, गोकर्ण, नैमिषारण्य तथा मलयाचल के तीर्थों में रहकर मन को प्रिय लगने वाले नियमों द्वारा उसने अपने शरीर को अत्‍यन्‍त क्षीण कर दिया। (26)
  • दूसरे किसी देवता में मन न लगाकर वह सदा पितामह ब्रह्मा में ही सुदृढ़ भक्तिभाव रखती थी। उस कन्‍या ने अपने धर्माचरण से पितामह को संतुष्‍ट कर लिया। (27)
  • राजन! तब लोकों को उत्‍पत्ति के कारणभूत अविनाशी ब्रह्मा उस समय मन-ही-मन अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो सौम्‍य हृदय से प्रीतिपूर्वक उससे बोले। (28)
  • 'मृत्‍यो! तू किसलिये इस प्रकार अत्‍यन्‍त कठोर तपस्या कर रही है?' तब मृत्‍यु ने भगवान पितामह से फिर इस प्रकार कहा। (29)
  • 'देव! प्रभों! सर्वेश्वर! मैं आपसे यही वर पाना चाहती हूँ कि मुझे रोती-चिल्‍लाती हुई स्‍वस्‍थ प्रजाओं का वध न करना पड़े।' (30)
  • 'महाभाग! मैं अधर्म के भय से बहुत डरती हूँ, इसीलिये तपस्‍या में लगी हुई हूँ। अविनाशी परमेश्वर! मुझ भयभीत अबला को अभय-दान दीजिये।' (31)
  • 'नाथ! में एक निरपराध नारी हूँ और आपके सामने आर्तभाव से याचना करती हूँ, आप मेरे आश्रयदाता हों।' तब भूत, भविष्‍य और वर्तमान के ज्ञाता भगवान ब्रह्मा ने उससे कहा। (32)
  • 'मृत्‍यो! इन प्रजाओं का संहार करने से तुझे अधर्म नहीं होगा। भद्रे! मेरी कही हुई बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती।' (33)
  • 'इसलिये कल्‍याणि! तू चार श्रेणियों मे विभाजित समस्‍त प्राणियों का संहार कर। सनातन धर्म तुझे सब प्रकार से पवित्र बनाये रखेगा।' (34)
  • लोकपाल, यम तथा नाना प्रकार की व्‍याधियाँ तेरी सहायता करेंगी। मैं और सम्‍पूर्ण देवता तुझे पुन: वरदान देंगे, जिससे तू पापमुक्‍त हो अपने निर्मल स्‍वरूप से विख्‍यात होगी।' (35)
  • महाराज! उनके ऐसा कहने पर मृत्‍यु हाथ जोड़ मस्‍तक झुकाकर भगवान ब्रह्मा को प्रसन्‍न करके उस समय पुन: यह वचन बोली। (36)
  • 'प्रभो! यदि इस प्रकार यह कार्य मेरे बिना नहीं हो सकता तो आपकी आज्ञा मैंने शिरोधार्य कर ली है, परंतु इसके विषय में मैं आपसे जो कुछ कहती हूँ, उसे (ध्‍यान देकर) सुनिये। (37)
  • 'लोभ, क्रोध, असूया, ईर्ष्‍या, द्रोह, मोह, निर्लज्‍जता और एक-दूसरे के प्रति कही हुई कठोर वाणी– ये विभिन्‍न दोष ही देहधारियों की देह का भेदन करें।' (38)
  • ब्रह्मा जी ने कहा– मृत्‍यो! ऐसा ही होगा। तू उत्‍तम रीति‍ से प्राणियों का संहार कर। शुभे! इससे तुझे पाप नहीं लगेगा और मैं भी तेरा अनिष्‍ट-चिन्‍तन नहीं करूँगा। (39)
  • तेरे आँसुओं की बूँदे, जिन्‍हें मैंने हाथ में ले लिया था, प्राणियों के अपने ही शरीर से उत्‍पन्‍न हुई व्‍याधियाँ बनकर गतायु प्राणियों का नाश करेंगी। तुझे अधर्म की प्राप्ति नहीं होगी; इसलिये तू भय न कर। (40)
  • निश्चय ही, तूझे पाप नहीं लगेगा। तू प्राणियों का धर्म और उस धर्म की स्‍वामिनी होगी। अत: सदा धर्म में तत्‍पर रहने वाली और धर्मानुकूल जीवन बिताने वाली धारित्री होकर इन समस्‍त जीवों के प्राणों का नियन्‍त्रण कर। (41)
  • काम और क्रोध का परित्‍याग करके इस जगत के समस्‍त प्राणियों का संहार कर। ऐसा करने से तुझे अक्षय धर्म की प्राप्ति होगी। मिथ्‍याचारी पुरुषों को तो उनका अधर्म ही मार डालेगा। (42)

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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