द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णव धर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-50 का हिन्दी अनुवाद
वेदाध्ययन का फल अग्नहोत्र है (अर्थात वेद पढ़कर जिसने अग्निहोत्र नहीं किया, उसका वह अध्ययन निष्फल है)। शास्त्रज्ञान का फल शील और सदाचार है, स्त्री का फल रति और पुत्र है तथा धन की सफलता दान और उपभोग करने में हैं। तीनों वेदों के मंत्रों के संयोग से अग्निहोत्र की प्रवृत्ति होती है। ऋक्, यजु: और सामवेद के पवित्र मंत्रों तथा मीमांसा सूत्रों के द्वारा अग्निहोत्र-कर्म का प्रतिपादन किया जाता है। नरेश्वर! वसन्त-ऋतु को ब्राह्मण का स्वरूप समझना चाहिये तथा वह वेद की योनिरूप है, इसलिये ब्राह्मण को वसन्त-ऋतु में अग्नि की स्थापना करनी चाहिये। निरूपाप! जो वसन्त-ऋतु में अग्न्याधान करता है, उस ब्राह्मण की श्रीवृद्धि होती है तथा उसका वैदिक ज्ञान भी बढ़ता है। राजन! क्षत्रिय के लिये ग्रीष्म–ऋतु में अग्न्याधान करना श्रेष्ठ माना गया है। जो क्षत्रिय ग्रीष्म-ऋतु में अग्नि-स्थापना करता है, उसकी सम्पत्ति, प्रजा, पशु, धन, तेज, बल और यश की अभिवृद्धि होती है। शरत्काल की रात्रि साक्षात वैश्य का स्वरूप है, इसलिये वैश्य को शरद-ऋतु में अग्नि का आधान करना चाहिये; उस समय की स्थापित की हुई अग्नि को वैश्य योनि कहते हैं। पाण्डुनन्दन! जो वैश्य शरद-ऋतु में अग्नि की स्थापना करता है, उसकी सम्पत्ति, प्रजा, आयु, पशु और धन की वृद्धि होती है। सब प्रकार के रस, घी आदि स्निग्ध पदार्थ, सुगन्धित द्रव्य, रत्न, मणि, सुवर्ण और लोहा- इन सबकी उत्पत्ति अग्निहोत्र के लिये ही है। अग्निहोत्र को ही जानने के लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय-शास्त्र और धर्मशास्त्र का निर्माण किया गया है। छन्द, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्यौतिष शास्त्र और निरुक्त भी अग्निहोत्र के लिये रचे गये हैं। इतिहास, पुराण, गाथा, उपनिषद और अथर्ववेद के कर्म भी अग्निहोत्र के लिये ही हैं। निष्पाप! तिथि, नक्षत्र, योग, मुहुर्त और करणरूप काल का ज्ञान प्राप्त करने के लिये पूर्वकाल में ज्यौतिष-शास्त्र का निर्माण हुआ है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों के छन्द का ज्ञान प्राप्त करने के लिये तथा संशय और विकल्प के निराकरणपूर्वक उनका तात्विक अर्थ समझने के लिये छन्द:शास्त्र की रचना की गई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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