सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-34 का हिन्दी अनुवाद
हनुमान जी बोले- 'शत्रुदमन पाण्डुनन्दन! तुम्हारे मन में मेरा परिचय प्राप्त करने के लिये जो कौतूहल हो रहा है, उसकी शान्ति के लिये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनो। कमलनयन भीम! मैं वानरश्रेष्ठ केसरी के क्षेत्र में जगत् के प्राणस्वरूप वायुदेव से उत्पन्न हुआ हूँ। मेरा नाम हनुमान वानर है। पूर्वकाल में सभी वानरराज और वानर यूथपति, जो महान् पराक्रमी थे, सूर्यनन्दन सुग्रीव तथा इन्द्रकुमार बाली की सेवा में उपस्थित रहते थे। शत्रुसूदन भीम! उन दिनों सुग्रीव के साथ मेरी वैसी ही प्रेमपूर्ण मित्रता थी, जैसी वायु की अग्नि के साथ मानी गयी है। किसी कारणान्त से बाली ने अपने भाई सुग्रीव को घर से निकाल दिया, तब बहुत दिनों तक वे मेरे साथ ऋष्यमूक पर्वत पर रहे। उस समय महाबली और दशरथनन्दन श्रीराम, जो साक्षात् भगवान् विष्णु ही थे, मनुष्य रूप धारण करके इस भूतल पर विचर रहे थे। वे अपने पिता की आज्ञापालन करने के लिये पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में चले आये। धनुर्धरों में श्रेष्ठ रघुनाथ जी सदा धनुष-बाण लिये रहते थे। अनघ! दण्डकारण्य में आकर वे जनस्थान में रहा करते थे। एक दिन अत्यन्त बलवान् दुरात्मा राक्षसराज रावण माया से सुवर्ण-रत्नमय विचित्र मृग का रूप धारण करने वाले मारीच नामक राक्षस के द्वारा नरश्रेष्ठ श्रीराम को धोखे में डालकर उनकी पत्नी सीता को छल-बलपूर्वक हर ले गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोभशतीर्थयात्रा के प्रसंग में हनुमान जी और भीमसेन का संवाद विषयक एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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