कविता बघेल (वार्ता | योगदान) |
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नरेश्वर! जो जीविका की इच्छा से विद्या का उपार्जन करते हैं, सम्पूर्ण दिशाओं में उसी विद्या के बल से यश पाने की इच्छा और मनोवांछित पदार्थों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, वे सभी पापात्मा और धर्मद्रोही हैं। जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, वे मन्दमति मानव यथार्थ तत्त्व को नहीं जानते हैं। शास्त्रज्ञान में निपुण न होकर सर्वत्र असंगत युक्ति पर ही अवलम्बित रहते हैं। निरंतर शास्त्र के दोष देखने वाले लोग शास्त्रों की मर्यादा लूटते हैं और यह कहा करते हैं कि अर्थशास्त्र का ज्ञान समीचीन नहीं है। वाणी ही जिनका अस्त्र है तथा जिनकी बोली ही [[बाण अस्त्र|बाण]] के समान लगती है, वे मानों विद्या के फल तत्त्वज्ञान से ही विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की विद्या की निंदा करके अपनी विद्या की अच्छाई का मिथ्या प्रचार करते हैं। भरतनंदन! ऐसे लोगों को तुम विद्या का व्यापार करने वाले तथा [[राक्षस|राक्षसों]] के समान परद्रोही समझो। उनकी बहानेबाजी से तुम्हारा सत्पुरुषों द्वारा प्रतिपादित एवं आचरित धर्म नष्ट हो जायेगा। | नरेश्वर! जो जीविका की इच्छा से विद्या का उपार्जन करते हैं, सम्पूर्ण दिशाओं में उसी विद्या के बल से यश पाने की इच्छा और मनोवांछित पदार्थों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, वे सभी पापात्मा और धर्मद्रोही हैं। जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, वे मन्दमति मानव यथार्थ तत्त्व को नहीं जानते हैं। शास्त्रज्ञान में निपुण न होकर सर्वत्र असंगत युक्ति पर ही अवलम्बित रहते हैं। निरंतर शास्त्र के दोष देखने वाले लोग शास्त्रों की मर्यादा लूटते हैं और यह कहा करते हैं कि अर्थशास्त्र का ज्ञान समीचीन नहीं है। वाणी ही जिनका अस्त्र है तथा जिनकी बोली ही [[बाण अस्त्र|बाण]] के समान लगती है, वे मानों विद्या के फल तत्त्वज्ञान से ही विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की विद्या की निंदा करके अपनी विद्या की अच्छाई का मिथ्या प्रचार करते हैं। भरतनंदन! ऐसे लोगों को तुम विद्या का व्यापार करने वाले तथा [[राक्षस|राक्षसों]] के समान परद्रोही समझो। उनकी बहानेबाजी से तुम्हारा सत्पुरुषों द्वारा प्रतिपादित एवं आचरित धर्म नष्ट हो जायेगा। | ||
− | हमने सुना है कि केवल वचन द्वारा अथवा केवल बुद्धि (तर्क) के द्वारा ही धर्म का निश्चय नहीं होता है, अपितु शास्त्रवचन और तर्क दोनों के समुच्चय द्वारा उसका निर्णय होता है- यही [[बृहस्पति|बृहस्पति]] का मत है, जिसे स्वयं [[इन्द्र]] ने बताया है। विद्वान पुरुष अकारण कोई बात नहीं कहते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य भलीभाँति सीखे हुए शास्त्र के अनुसार कार्य करने की चेष्टा नहीं करते हैं। इस जगत में कोई-कोई मनीषी पुरुष शिष्ट पुरुषों द्वारा परिचालित लोकाचार को ही धर्म कहते हैं; परंतु विद्वान पुरुष स्वयं ही ऊहापोह करके सत्पुरुषों के शास्त्रविहित धर्म का निश्चय कर ले। भरतनंदन! जो बुद्धिमान होकर [[शास्त्र]] को ठीक-ठीक न समझते हुए मोह में आबद्ध होकर बड़े जोश के साथ शास्त्र का प्रवचन करता है, उसके उस कथन का लोक समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेद-शास्त्रों के द्वारा अनुमोदित, तर्कयुक्त [[बुद्धि]] के द्वारा जो बात कही जाती है, उसी से शास्त्र की प्रशंसा होती है अर्थात शास्त्र की वही बात लोगों के मन में बैठती है। दूसरे लोग अज्ञात विषय का ज्ञान कराने के लिये केवल तर्क को ही श्रेष्ठ मानते हैं, परंतु यह उनकी नासमझी ही है। वे लोग केवल तर्क को प्रधानता देकर अमुक युक्ति से शास्त्र की यह बात कट जाती है; इसलिये यह व्यर्थ है, ऐसा कहते हैं; किंतु यह कथन भी अज्ञान के ही कारण है ( अत: तर्क से शास्त्र को और शास्त्र से तर्क का बोध न करके दोनों के सहयोग से जो कर्तव्य निश्चित हो, उसी का पालन करना चाहिये ) पूर्वकाल में यह संशय नाशक बात स्वयं [[शुक्राचार्य]] ने [[दैत्य|दैत्यों]] से कहीं थी। जो संशयात्मक ज्ञान है, उसका होना और न होना बराबर है; अत: तुम उस संशय का मूलोच्छेद करके उसे दूर हटा दो (संशयरहित ज्ञान का आश्रय लो) यदि तुम मेरे इस नीतियुक्त कथन को नहीं स्वीकार करते हो तो तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि तुम ([[क्षत्रिय]] होने के कारण) उग्र (हिंसा पूर्ण) कर्म के लिये ही विधाता द्वारा रचे गये हो। इस बात की ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं जा रही है। | + | हमने सुना है कि केवल वचन द्वारा अथवा केवल बुद्धि (तर्क) के द्वारा ही [[धर्म]] का निश्चय नहीं होता है, अपितु शास्त्रवचन और तर्क दोनों के समुच्चय द्वारा उसका निर्णय होता है- यही [[बृहस्पति|बृहस्पति]] का मत है, जिसे स्वयं [[इन्द्र]] ने बताया है। विद्वान पुरुष अकारण कोई बात नहीं कहते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य भलीभाँति सीखे हुए शास्त्र के अनुसार कार्य करने की चेष्टा नहीं करते हैं। इस जगत में कोई-कोई मनीषी पुरुष शिष्ट पुरुषों द्वारा परिचालित लोकाचार को ही धर्म कहते हैं; परंतु विद्वान पुरुष स्वयं ही ऊहापोह करके सत्पुरुषों के शास्त्रविहित धर्म का निश्चय कर ले। भरतनंदन! जो बुद्धिमान होकर [[शास्त्र]] को ठीक-ठीक न समझते हुए मोह में आबद्ध होकर बड़े जोश के साथ शास्त्र का प्रवचन करता है, उसके उस कथन का लोक समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेद-शास्त्रों के द्वारा अनुमोदित, तर्कयुक्त [[बुद्धि]] के द्वारा जो बात कही जाती है, उसी से शास्त्र की प्रशंसा होती है अर्थात शास्त्र की वही बात लोगों के मन में बैठती है। दूसरे लोग अज्ञात विषय का ज्ञान कराने के लिये केवल तर्क को ही श्रेष्ठ मानते हैं, परंतु यह उनकी नासमझी ही है। वे लोग केवल तर्क को प्रधानता देकर अमुक युक्ति से शास्त्र की यह बात कट जाती है; इसलिये यह व्यर्थ है, ऐसा कहते हैं; किंतु यह कथन भी अज्ञान के ही कारण है ( अत: तर्क से शास्त्र को और शास्त्र से तर्क का बोध न करके दोनों के सहयोग से जो कर्तव्य निश्चित हो, उसी का पालन करना चाहिये ) पूर्वकाल में यह संशय नाशक बात स्वयं [[शुक्राचार्य]] ने [[दैत्य|दैत्यों]] से कहीं थी। जो संशयात्मक ज्ञान है, उसका होना और न होना बराबर है; अत: तुम उस संशय का मूलोच्छेद करके उसे दूर हटा दो (संशयरहित ज्ञान का आश्रय लो) यदि तुम मेरे इस नीतियुक्त कथन को नहीं स्वीकार करते हो तो तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि तुम ([[क्षत्रिय]] होने के कारण) उग्र (हिंसा पूर्ण) कर्म के लिये ही विधाता द्वारा रचे गये हो। इस बात की ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं जा रही है। |
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13:25, 31 मार्च 2018 के समय का अवतरण
द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! जो जीविका की इच्छा से विद्या का उपार्जन करते हैं, सम्पूर्ण दिशाओं में उसी विद्या के बल से यश पाने की इच्छा और मनोवांछित पदार्थों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, वे सभी पापात्मा और धर्मद्रोही हैं। जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, वे मन्दमति मानव यथार्थ तत्त्व को नहीं जानते हैं। शास्त्रज्ञान में निपुण न होकर सर्वत्र असंगत युक्ति पर ही अवलम्बित रहते हैं। निरंतर शास्त्र के दोष देखने वाले लोग शास्त्रों की मर्यादा लूटते हैं और यह कहा करते हैं कि अर्थशास्त्र का ज्ञान समीचीन नहीं है। वाणी ही जिनका अस्त्र है तथा जिनकी बोली ही बाण के समान लगती है, वे मानों विद्या के फल तत्त्वज्ञान से ही विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की विद्या की निंदा करके अपनी विद्या की अच्छाई का मिथ्या प्रचार करते हैं। भरतनंदन! ऐसे लोगों को तुम विद्या का व्यापार करने वाले तथा राक्षसों के समान परद्रोही समझो। उनकी बहानेबाजी से तुम्हारा सत्पुरुषों द्वारा प्रतिपादित एवं आचरित धर्म नष्ट हो जायेगा। हमने सुना है कि केवल वचन द्वारा अथवा केवल बुद्धि (तर्क) के द्वारा ही धर्म का निश्चय नहीं होता है, अपितु शास्त्रवचन और तर्क दोनों के समुच्चय द्वारा उसका निर्णय होता है- यही बृहस्पति का मत है, जिसे स्वयं इन्द्र ने बताया है। विद्वान पुरुष अकारण कोई बात नहीं कहते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य भलीभाँति सीखे हुए शास्त्र के अनुसार कार्य करने की चेष्टा नहीं करते हैं। इस जगत में कोई-कोई मनीषी पुरुष शिष्ट पुरुषों द्वारा परिचालित लोकाचार को ही धर्म कहते हैं; परंतु विद्वान पुरुष स्वयं ही ऊहापोह करके सत्पुरुषों के शास्त्रविहित धर्म का निश्चय कर ले। भरतनंदन! जो बुद्धिमान होकर शास्त्र को ठीक-ठीक न समझते हुए मोह में आबद्ध होकर बड़े जोश के साथ शास्त्र का प्रवचन करता है, उसके उस कथन का लोक समाज में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वेद-शास्त्रों के द्वारा अनुमोदित, तर्कयुक्त बुद्धि के द्वारा जो बात कही जाती है, उसी से शास्त्र की प्रशंसा होती है अर्थात शास्त्र की वही बात लोगों के मन में बैठती है। दूसरे लोग अज्ञात विषय का ज्ञान कराने के लिये केवल तर्क को ही श्रेष्ठ मानते हैं, परंतु यह उनकी नासमझी ही है। वे लोग केवल तर्क को प्रधानता देकर अमुक युक्ति से शास्त्र की यह बात कट जाती है; इसलिये यह व्यर्थ है, ऐसा कहते हैं; किंतु यह कथन भी अज्ञान के ही कारण है ( अत: तर्क से शास्त्र को और शास्त्र से तर्क का बोध न करके दोनों के सहयोग से जो कर्तव्य निश्चित हो, उसी का पालन करना चाहिये ) पूर्वकाल में यह संशय नाशक बात स्वयं शुक्राचार्य ने दैत्यों से कहीं थी। जो संशयात्मक ज्ञान है, उसका होना और न होना बराबर है; अत: तुम उस संशय का मूलोच्छेद करके उसे दूर हटा दो (संशयरहित ज्ञान का आश्रय लो) यदि तुम मेरे इस नीतियुक्त कथन को नहीं स्वीकार करते हो तो तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि तुम (क्षत्रिय होने के कारण) उग्र (हिंसा पूर्ण) कर्म के लिये ही विधाता द्वारा रचे गये हो। इस बात की ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं जा रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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