"महाभारत वन पर्व अध्याय 284 श्लोक 16-33" के अवतरणों में अंतर

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‘जनकनन्दिनी सीता को छोड. दो, अन्यथा कभी मेरे हाथ से जीवित नहीं बचोगे। मैं अपने तीखे बाणों द्वारा इस संसार को राक्षसों से सूना कर दूँगा’। श्रीरामचन्द्रजी के दूत के मुख से ऐसी कठोर बातें सुनकर राजा रावण सहिन न कर सका। वह क्रोघ से मूर्च्छित हो उठा।
 
तब स्वामी के संकेत को समझने वाले चार निशाचर अपनी जगह से उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंह को पकड़े, उसी प्रकार वे अंगद को पकड़ने लगे। अंगद इस प्रकार अपने अंगों से सटे हुए उन चारों राक्षसों को लिये-दिये आकाश में उछलकर महल की छत पर जा चढ़े। उछलते समय उनके वेग से छूटकर वे चारों राक्षस पृथ्वी पर जा गिरे। उन राक्षसों की छाती फअ गयी और अधिक चोट लगने के कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। छत पर चढ़े हुए अरगद फिर उस महल के कँगूरे से कूद पडत्रे और लंकापुरी को लाँघकर सुवेल पर्वत के समीप आ पहुँचे।
 
  
फिर कोसलनरेश श्रीरामचन्द्रजी से मिलकर तेजस्वी वानर अंगद ने रावण के दरबार की सारी बातें बतायीं। श्रीराम ने अंगद की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे विश्राम करने लगे। तदनन्तर भगवान  श्रीराम ने वायु के समान वेगशाली वानरों की सम्पूर्ण सेना के द्वारा एक साथ लंका पर धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली। नगर के दक्षिण द्वार में प्रवेश करना बहुत कठिन था, परंतु लक्ष्मण ने विभीषण और जाम्बवान को आगे करके उसे भी धूल में मिला दिया। तत्पश्चात् उन्होंने हथेली के समान श्वेत और लाल रंग के युद्धकुशल वानरों की दस खरब सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। उनके भुजा, ऊरु, हाथ और जंघा (पिंडली)- ये सभी अंग विशाल थे तथा अंगों की कान्ति धुएँ के समान काली थी, ऐसे तीन करोड़ रीछ सैनिक भी उनके साथ लंका में जाकर युद्ध के लिये डटे हुए थे। उस समय वानरों के उछलने-कूदने तथा गिरने-पडत्रने से इतनी धूल उड़ी कि उससे सूर्य की प्रभा नष्ट हो गयी और उसका दीखना बंद हो गया।
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‘[[सीता|जनकनन्दिनी सीता]] को छोड़ दो, अन्यथा कभी मेरे हाथ से जीवित नहीं बचोगे। मैं अपने तीखे बाणों द्वारा इस संसार को राक्षसों से सूना कर दूँगा’।
  
राजन्!  धान के फूल जैसे रंग वाले मौलसिरी के पुष्प सदृश कान् वाले, प्रातःकाल के सूर्य के समान अरुण प्रभा वाले तथा सनई के समान सफेद रंग वाले वानरों से व्याप्त होने के कारण लंका की चहारदीवारी चारों ओर कपिलवर्ण की दिखायी देती थी। स्त्रियों और वृद्धों सहित समस्त लंकावासी राक्षस चारों ओर आश्चर्यचकित होकर इस दृश्य को देख रहे थे। वानर सैनिक वहाँ के मधिनिर्मित खम्भों और अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे महलों के कंगूरों को तोड़ने-फोड़ने लगे।
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[[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] के दूत के मुख से ऐसी कठोर बातें सुनकर राजा [[रावण]] सहन न कर सका। वह क्रोघ से मूर्च्छित हो उठा। तब स्वामी के संकेत को समझने वाले चार निशाचर अपनी जगह से उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंह को पकड़े, उसी प्रकार वे [[अंगद]] को पकड़ने लगे। अंगद इस प्रकार अपने अंगों से सटे हुए उन चारों राक्षसों को लिये-दिये आकाश में उछलकर महल की छत पर जा चढ़े। उछलते समय उनके वेग से छूटकर वे चारों राक्षस पृथ्वी पर जा गिरे। उन राक्षसों की छाती फट गयी और अधिक चोट लगने के कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। छत पर चढ़े हुए अंगद फिर उस महल के कँगूरे से कूद पड़े और लंकापुरी को लाँघकर सुवेल पर्वत के समीप आ पहुँचे।
  
गोलाबारी करने वाले जो तोप आदि यन्त्र लगे थे, उनके शिखरों को चूर-चूर करके उन्होंने दूर फेंक दिया। पहियों वाली तोपों, श्रृंगों और गोलों को ले-लेकर महान् कोलाहल करते हुए वानर अपनी भुजाओं के वेग से उन्हें लंका में फेंकने लगे। जो कोई निशाचर चहारदीवारी की रक्षा के लिये सैंकड़ों की संख्या में वहाँ खड़े थे, वे सब वानरों द्वारा खदेड़े जाने पर भाग खड़े हुए। तदनन्तर राक्षसराज रावण की आज्ञा पाकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षस लाख-लाख की टोली बनाकर नगर से बाहर निकले। उन सबकी आकृति बड़ी विकराल थी।
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फिर कोसल नरेश श्रीरामचन्द्र जी से मिलकर तेजस्वी वानर अंगद ने रावण के दरबार की सारी बातें बतायीं। श्रीराम ने अंगद की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे विश्राम करने लगे। तदनन्तर भगवान श्रीराम ने वायु के समान वेगशाली वानरों की सम्पूर्ण सेना के द्वारा एक साथ [[लंका]] पर धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली। नगर के दक्षिण द्वार में प्रवेश करना बहुत कठिन था, परंतु [[लक्ष्मण]] ने [[विभीषण]] और [[जाम्बवान]] को आगे करके उसे भी धूल में मिला दिया। तत्पश्चात् उन्होंने हथेली के समान श्वेत और लाल रंग के युद्ध कुशल वानरों की दस खरब सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। उनके भुजा, ऊरु, हाथ और जंघा (पिंडली)-ये सभी अंग विशाल थे तथा अंगों की कान्ति धुएँ के समान काली थी, ऐसे तीन करोड़ रीछ सैनिक भी उनके साथ लंका में जाकर युद्ध के लिये डटे हुए थे। उस समय वानरों के उछलने-कूदने तथा गिरने-पड़ने से इतनी धूल उड़ी कि उससे सूर्य की प्रभा नष्ट हो गयी और उसका दीखना बंद हो गया।
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राजन्! धान के फूल जैसे रंग वाले मौलसिरी के पुष्प सदृश कान् वाले, प्रातःकाल के सूर्य के समान अरुण प्रभा वाले तथा सनई के समान सफेद रंग वाले वानरों से व्याप्त होने के कारण लंका की चहारदीवारी चारों ओर कपिल वर्ण की दिखायी देती थी। स्त्रियों और वृद्धों सहित समस्त लंकावासी राक्षस चारों ओर आश्चर्यचकित होकर इस दृश्य को देख रहे थे। वानर सैनिक वहाँ के मणिनिर्मित खम्भों और अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे महलों के कंगूरों को तोड़ने-फोड़ने लगे। गोलाबारी करने वाले जो तोप आदि यन्त्र लगे थे, उनके शिखरों को चूर-चूर करके उन्होंने दूर फेंक दिया। पहियों वाली तोपों, श्रृंगों और गोलों को ले-लेकर महान् कोलाहल करते हुए वानर अपनी भुजाओं के वेग से उन्हें [[लंका]] में फेंकने लगे। जो कोई निशाचर चहारदीवारी की रक्षा के लिये सैंकड़ों की संख्या में वहाँ खड़े थे, वे सब वानरों द्वारा खदेड़े जाने पर भाग खड़े हुए। तदनन्तर राक्षसराज [[रावण]] की आज्ञा पाकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षस लाख-लाख की टोली बनाकर नगर से बाहर निकले। उन सब की आकृति बड़ी विकराल थी।
 
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14:47, 19 मार्च 2018 के समय का अवतरण

चतुरशीत्यधिकद्वशततम (284) अध्‍याय: वन पर्व (रामोपाख्‍यान पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद


जनकनन्दिनी सीता को छोड़ दो, अन्यथा कभी मेरे हाथ से जीवित नहीं बचोगे। मैं अपने तीखे बाणों द्वारा इस संसार को राक्षसों से सूना कर दूँगा’।

श्रीरामचन्द्र जी के दूत के मुख से ऐसी कठोर बातें सुनकर राजा रावण सहन न कर सका। वह क्रोघ से मूर्च्छित हो उठा। तब स्वामी के संकेत को समझने वाले चार निशाचर अपनी जगह से उठे और जिस प्रकार पक्षी सिंह को पकड़े, उसी प्रकार वे अंगद को पकड़ने लगे। अंगद इस प्रकार अपने अंगों से सटे हुए उन चारों राक्षसों को लिये-दिये आकाश में उछलकर महल की छत पर जा चढ़े। उछलते समय उनके वेग से छूटकर वे चारों राक्षस पृथ्वी पर जा गिरे। उन राक्षसों की छाती फट गयी और अधिक चोट लगने के कारण उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। छत पर चढ़े हुए अंगद फिर उस महल के कँगूरे से कूद पड़े और लंकापुरी को लाँघकर सुवेल पर्वत के समीप आ पहुँचे।

फिर कोसल नरेश श्रीरामचन्द्र जी से मिलकर तेजस्वी वानर अंगद ने रावण के दरबार की सारी बातें बतायीं। श्रीराम ने अंगद की बड़ी प्रशंसा की। फिर वे विश्राम करने लगे। तदनन्तर भगवान श्रीराम ने वायु के समान वेगशाली वानरों की सम्पूर्ण सेना के द्वारा एक साथ लंका पर धावा बोल दिया और उसकी चहारदीवारी तुड़वा डाली। नगर के दक्षिण द्वार में प्रवेश करना बहुत कठिन था, परंतु लक्ष्मण ने विभीषण और जाम्बवान को आगे करके उसे भी धूल में मिला दिया। तत्पश्चात् उन्होंने हथेली के समान श्वेत और लाल रंग के युद्ध कुशल वानरों की दस खरब सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। उनके भुजा, ऊरु, हाथ और जंघा (पिंडली)-ये सभी अंग विशाल थे तथा अंगों की कान्ति धुएँ के समान काली थी, ऐसे तीन करोड़ रीछ सैनिक भी उनके साथ लंका में जाकर युद्ध के लिये डटे हुए थे। उस समय वानरों के उछलने-कूदने तथा गिरने-पड़ने से इतनी धूल उड़ी कि उससे सूर्य की प्रभा नष्ट हो गयी और उसका दीखना बंद हो गया।

राजन्! धान के फूल जैसे रंग वाले मौलसिरी के पुष्प सदृश कान् वाले, प्रातःकाल के सूर्य के समान अरुण प्रभा वाले तथा सनई के समान सफेद रंग वाले वानरों से व्याप्त होने के कारण लंका की चहारदीवारी चारों ओर कपिल वर्ण की दिखायी देती थी। स्त्रियों और वृद्धों सहित समस्त लंकावासी राक्षस चारों ओर आश्चर्यचकित होकर इस दृश्य को देख रहे थे। वानर सैनिक वहाँ के मणिनिर्मित खम्भों और अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे महलों के कंगूरों को तोड़ने-फोड़ने लगे। गोलाबारी करने वाले जो तोप आदि यन्त्र लगे थे, उनके शिखरों को चूर-चूर करके उन्होंने दूर फेंक दिया। पहियों वाली तोपों, श्रृंगों और गोलों को ले-लेकर महान् कोलाहल करते हुए वानर अपनी भुजाओं के वेग से उन्हें लंका में फेंकने लगे। जो कोई निशाचर चहारदीवारी की रक्षा के लिये सैंकड़ों की संख्या में वहाँ खड़े थे, वे सब वानरों द्वारा खदेड़े जाने पर भाग खड़े हुए। तदनन्तर राक्षसराज रावण की आज्ञा पाकर इच्छानुसार रूप धारण करने वाले राक्षस लाख-लाख की टोली बनाकर नगर से बाहर निकले। उन सब की आकृति बड़ी विकराल थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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