महादेवेन देवेश संदिष्टोऽस्मि महात्मना।
अन्तर्भूमितलेऽवध्यानसुरान् प्रति मानद।।31।।
तदितो दशरात्रेण हन्ताेहमसुरोत्तसमान्।
तत्रोपविष्टान् स्थातव्यं प्रवरेण महात्मना।।32।।
जयन्तेन च वीरेण दानवानां जिघांसया।
एकोऽत्र मानुषो देवो देवपुत्रस्तंथा पर:।।33।।
अवध्या: किल ते देवैर्ब्रह्मणो वरदर्पिता:।
अस्माभि: किल हन्तव्या मानुषत्वपमुपागतै:।।34
तथेति कृष्णं स हरि: प्रीतरूपस्तथाब्रवीत्।
सस्वजाते ततो देवावन्योन्यंर जनमेजय।।35।।
इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुयपर्वणि पारिजातहरणे स्वर्गे पारिजातस्थापने षट्सप्तीतितमोऽध्याय:।