हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 93 श्लोक 42-62

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 42-62 का हिन्दी अनुवाद

यह सुनकर प्रभावती को बड़ा हर्ष हुआ। वह उस हंसी से इस प्रकार बोली- 'सुन्‍दरि! तुम पहले भी मेरे घर में रह चुकी हो। उसी तरह आज भी मेरे ही महल में शयन करो।' आकाशचारिणी हंसी ने अपनी कमललोचना सखी प्रभावती से कहा- ‘बहुत अच्‍छा, आज यहीं सोऊँगी'। फिर वह प्रभावती की अट्टालिका पर आरूढ़ हुई। विश्‍वकर्मा के बनाये हुए प्रासाद पृष्‍ठ में प्रभावती ने शीघ्र ही प्रद्युम्न के आगमन के योग्‍य सजावट कर दी। वह सजावट हो जाने पर वायु के समान तीव्र वेग से चलने वाली हंसी प्रभावती से पूछकर प्रद्युम्‍न को ले आने के लिये गयी। पवित्र मुस्‍कान वाली वह हंसी नट वेषधारी प्रद्युम्‍न के पास जाकर बोली- ‘भगवन्! आपने पहले से जो समय निश्चित कर रखा है, वह आज की ही रात में आ रहा है।'

तब प्रद्युम्‍न ने उससे कहा- ‘बहुत अच्‍छा’ उनका यह उत्‍तर सुनकर पक्षिणी लौट गयी। महल में लौटकर हंसी ने प्रभावती से कहा- 'विशाललोचने! धीरज धारण करो। वे रुक्मिणीनन्‍दन तुम्‍हारे पास आ रहे हैं’। उधर शत्रुमर्दन मनस्‍वी वीर प्रद्युम्‍न ने देखा कि प्रभावती के यहाँ सुगन्धित पुष्‍प माला ले जायी जा रही हैं, जिस पर बहुत-से भ्रमर आ बैठे हैं। फिर तो सर्वज्ञ एवं प्रतापी वीर प्रद्युम्‍न प्रभावती के यहाँ ले जायी जाने वाली माला में भ्रमर होकर छिप गये। स्त्रियों ने भ्रमरों से आवृत हुई उस माला को प्रभावती के महल में पहुँचा दिया। फिर दूसरी स्त्रियों ने यह भ्रमरावृत माला प्रभावती के हाथ में दे दी। नरेश्‍वर! प्रभावती ने उसे पास ही रख लिया। सौम्‍य! संध्‍याकाल उपस्थित होने पर वे भ्रमर चले गये। उन अपने सहायकों से बिछुड़कर वीर यदुश्रेष्ठ प्रद्युम्‍न धीरे से प्रभावती के कान में पहने गये कमल में छिप गये। तब वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ प्रभावती ने अत्‍यन्‍त मनोहरपूर्ण चन्‍द्र को उदित हुआ देख हंसी से कहा-

'सखि! मेरे तो सारे अंग जले जा रहे हैं। मुँह सूख रहा है। हृदय में अत्‍यन्‍त उत्‍कण्‍ठा बढ़ गयी है। यह कौन-सा रोग लग गया, जिसकी कोई दवा ही नहीं है? वह शीतल किरणों वाला नवोदितपूर्ण चन्‍द्र दूनी उत्‍सुकता बढ़ा रहा है। वह देखने में प्रिय लगता है; परंतु मित्र भाव का अपहरण कर रहा है- अप्रियवत बर्ताव करने लगा है। अहो! जिसे मैंने पहले कभी देखा नहीं है, केवल नाम सुनकर उसे चाहने लगी हूँ तो भी वह मेरे सारे अंगों में आग सुलगा रहा है। मुझे धूमाच्‍छन्‍न किये देता है। नारी के इस स्‍वभाव को धिक्‍कार है। जैसा कि मैं बुद्धि से सोच रही हूँ, यदि मेरे प्रियतम नहीं आये तो मैं अकिंचन नारी उसी मार्ग को अपनाऊँगी, जिस पर कुमद्वती चल चुकी है अर्थात प्रियतम पति के जीते जी ही युवावस्‍था में मुझे अपने प्राणों का परित्‍याग करना पड़ेगा। हां! यह कितने कष्‍ट की बात है? हाय! हाय !! मुझ मनस्विनी नारी को कामदेव रूपी विषधर सर्प ने डँस लिया है, अन्‍यथा शीतलता ही जिनकी शक्ति है, जो स्‍वभाव से ही जगत को आह्लाद एवं सुख प्रदान करने वाली हैं, वे चन्‍द्रमा की किरणें मेरे अंगों को क्यों जला रही हैं? जो स्‍वभाव से ही शीतल है और नाना प्रकर के पुष्‍पों की सुगन्धित रज लेकर बहती है, वही वायु आज मेरे लिये दावानल के समान होकर मेरे सुन्‍दर शरीर को अत्‍यन्‍त दग्‍ध किये देती है। मैं बारम्‍बार संकल्‍प कर रही हूँ कि मुझे अपने मन को स्थिर कर लेना चाहिए; परंतु मेरा मन काम मथित होकर अत्‍यन्‍त निर्बल हो गया है; अत: स्थिर नहीं हो पाता है। उन्‍मनी हुई जा रही हूँ, मुझ पर मोह छा रहा है। मेरे हृदय में महान कम्‍पन हो रहा है और मेरी दृष्टि बारम्‍बार घूम रही है। हाय! हाय! अब निश्‍चय ही मैं नष्‍ट हो जाऊँगी।'

इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में वज्रनाभपुर में प्रद्युम्न का गमनविषयक तिरानबेवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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