हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 89 श्लोक 70-85

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 70-85 का हिन्दी अनुवाद

उसकी अंगयष्टि बड़ी सुन्‍दर थी। उसके द्वारा अभिनय किये जाने पर बलराम और श्रीकृष्‍ण को बड़ा संतोष हुआ। राजन! तदनन्‍तर मनोहर एवं विशाल नेत्रों वाली उर्वशी, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा और मेनका- ये तथा और भी बहुत-सी अप्‍सराएं श्रीकृष्‍ण का प्रिय करने के लिये मन के अनुकूल प्रिय कामनाओं को प्रस्‍तुत करती हुई गाने और अभिनय करने लगीं। नरेन्‍द्रकुमार! वे रम्भा आदि अप्‍सराएं मन-ही-मन वसुदेवनन्‍दन भगवान श्रीकृष्‍ण में अनुरक्‍त थीं। उन्‍होंने अपने गीत, नृत्‍य एवं उदार अभिनयों द्वारा सबको संतोष प्रदान करके प्रसन्‍न कर लिया। नरेश्‍वर! उस समय श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा से जल क्रीड़ा में आयी हुई उन श्रेष्ठ अप्‍सराओं ने उनकी ओर से पान के बीड़े प्राप्‍त किये, जो उनके लिये सम्‍मान स्‍वरूप थे। नरदेव! श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा से मनुष्‍यों पर अनुग्रह करने के लिए स्‍वर्ग से वह छालिक्‍य गान्‍धर्व (दिव्‍य संगीत एवं नृत्‍य विशेष) भूतल पर लाया गया था; साथ ही उत्‍तम गन्‍धों से युक्‍त देवयोग्‍य फल भी यहाँ लाये गये थे। वीर यादवों ने इन सबका रसास्‍वादन किया। वह रमणीय छालिक्‍य गान्‍धर्व भगवान श्रीकृष्‍ण के ही प्रभाव से इस पृथ्‍वी पर प्रद्युम्न आदि में प्रतिष्ठित हुआ।

उदार बुद्धि रुक्मिणीकुमार प्रद्युम्न ने गान्‍धर्व-कला को प्रयोग में लाकर दिखाया भी था। उन्‍होंने ही ताम्‍बूल का प्रयोग किया। इन्‍द्रतुल्‍य पराक्रमी पांच वीरों (श्रीकृष्‍ण, बलराम, प्रद्युम्‍न, अनिरुद्ध और साम्ब) ने यहाँ छालिक्‍य गान्‍धर्व का आयोजन किया था, जो मनुष्‍यों को सदा ही अभीष्‍ट है। वह शुभकारक, वृद्धि करने वाला, प्रशस्‍त, मंगलकारी, यशोवर्द्धक पुण्‍यदायक, पुष्टि और अभ्‍युदय को देने वाला है। उदार कीर्ति वाले भगवान नारायण को वह परमप्रिय है। उसकी चर्चा करने मात्र से वह विजय की प्राप्ति और धर्म का लाभ कराता है। दु:स्‍वप्‍न का नाश और पाप का निवारण कर देता है। किसी समय देवलोक में गये हुए उदार कीर्ति राजा रेवत ने छालिक्‍य गान्‍धर्व को इतनी तन्‍मयता के साथ सुना था कि उन्‍हें चार हजार युगों का समय भी एक दिन के समान ही प्रतीत हुआ। राजन! उसी छालिक्‍य गान्‍धर्व से कुमार जाति तथा अन्‍य गान्‍धर्व जाति की प्रवत्ति हुई है। ठीक उसी तरह, जैसे एक दीपक से सैकड़ों दीपक जल जाते हैं।

नरेश्‍वर! प्रद्युम्‍न आदि मुख्‍य-मुख्‍य यादवों के साथ भगवान श्रीकृष्‍ण और नारद जी ही छालिक्‍य गुणोदय के इस विज्ञान का यथावत रूप से जानते हैं। संसार के दूसरे मनुष्‍यों को तो इसकी नाम मात्र की ही जानकारी है। जैसे नदियों के जल को समुद्र अथवा कोई विशाल पर्वत ही यथार्थ रूप से जान सकता है, उसी प्रकार भगवान ही छालिक्‍य के श्रेष्‍ठ फल अथवा गुणों को ठीक-ठीक जानते हैं। तपस्‍या किये बिना छालिक्‍य गान्‍धर्व को तथा उसके मूर्च्‍छनाविषयक विधान को नहीं जान जा सकता। यह कथन सर्वथा उचित ही है। राजन! छ: ग्रामों वाले जो राग हैं, उनमें भी छालिक्‍य का उसके एकदेशीय अवयव के द्वारा गान करना चाहिये। लेश नामक जो छालिक्‍य की सुकुमार जाति है, उसका गान करने वाले मनुष्‍य भी बड़े दु:ख से (कठिनाई से) उसकी समाप्ति कर पाते हैं। फिर सम्‍पूर्ण छालिक्‍य के गान की तो बात ही क्‍या है? नरदेव! जो देवता, गन्‍धर्व और महर्षियों के समुदाय हैं, वे ही छालिक्‍य गान्‍धर्व के गुणों के प्रकट करने की कला में पारंगत होते हैं। इस बात को तुम अपनी बुद्धि द्वारा अच्‍छी तरह जान लो। ऐसा समझकर ही भगवान मधुसूदन ने सम्‍पूर्ण जगत पर अनुग्रह करने की इच्‍छा से मुख्‍य यादवों को छालिक्‍य गान्‍धर्व का ज्ञान प्रदान किया था। वह देवताओं द्वारा गाये जाने योग्‍य छालिक्‍य इस प्रकार मनुष्‍य लोक में प्रतिष्ठित हुआ है। बालक, युवक और वृद्ध यदुवंशी जन्‍मोत्‍सवों में उक्‍त गान्‍धर्व द्वारा क्रीड़ा या मनोरंजन करते थे। पहले बालक उस कला को प्रसन्‍नतापूर्वक ग्रहण करने लगे। तत्‍पश्‍चात वृद्ध लोग भी उसके प्रति आदर का भाव दिखाने लगे; फिर तो सब लोग सदा सभी स्‍थानों में उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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