हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 7 श्लोक 18-37

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद

बालक कन्हैया द्वारा वेग से खींचे गये वे दोनों अर्जुन-वृक्ष जड़ और शाखाओं सहित टूट कर गिर पड़े और वह अपने दिव्य बल का आश्रय ले गोपों को दिखाने के लिये उन दोनों वृक्षों के बीच में खड़ा-खड़ा हंसने लगा। उस बालक के प्रभाव से वह रस्सी और भी दृढ़ हो गयी। यमुना तीर के मार्ग पर खड़ी हुई गोपियों ने जब बाल कृष्ण को उस अवस्था में देखा, तब वे आश्चर्य-चकित हो करुण-क्रन्दन करती हुईं यशोदा जी के पास गयीं। उन सबके मुख पर घबराहट छायी हुई थी। उन गोपागंनाओं ने यशोदा से कहा- 'यशोदा जी वेग से आओ! आओ! सम्भ्रम के कारण तुम विलम्‍ब क्यों करती हो? व्रज में वे जो दोनों अर्जुन-वृक्ष थे, जहाँ हमारी प्रत्येक याचना और मनौती सफल होती थी, वे दोनों वृक्ष तुम्हारे पुत्र के ऊपर गिर पड़े। जैसे बंधा हुआ बछड़ा हो, उसी प्रकार उदर में मजबूत रस्सी से बँधा हुआ तुम्हारा वह बालक उन वृक्षों के बीच में खड़ा-खड़ा हँस रहा था। अपने को पण्डित मानने वाली मूढ़ दु‍र्बुद्धि यशोदे! उठो! चलो हमारे साथ और जीवित पुत्र को, जो मानो मौत के मुख से बचकर निकला है, घर ले आओ’। यशोदा भयभीत हो सहसा उठी और हाहाकार करती हुई उस स्थान पर गयी, जहाँ उसके लाल ने उन दोनों वृक्षों को धराशायी कर दिया था। उसने अपने पूत को उन दोनों वृक्षों के बीच में खड़ा देखा, जो रस्सी से पेट में बंधी हुई ओखली को अपनी ओर खींच रहा था।

गोपियों और बड़े-बूढे़ गोपों सहित सारे व्रज में उस समय इसी घटना की चर्चा होने लगी। गोपों के यहाँ जो यह महान और अद्भुत घटना घटित हुई थी, इसे देखने के लिये चारों ओर से लोग आने लगे। वन में विचरने वाले वे गोप अपनी इच्छा के अनुसार वहाँ आकर कहने लगे- 'अहो! व्रज के ये दोनों वृक्ष देव मन्दिर के समान थे, इनको किसने गिरा दिया? न आंधी चली, न वर्षा हुई, न बिजली गिरी और न किसी हाथी ने ही आकर टक्कर मारा, इन सब दोषों के बिना ही ये दोनों वृक्ष किसके द्वारा गिराये गये? अहो! जड़ से अलग हो जाने के कारण पृथ्वी पर गिरे हुए ये दोनों अर्जुन-वृक्ष जलहीन बादलों के समान शोभा रहित हो गये हैं। नन्दगोप! यदि ये दोनों वृक्ष इस गोष्ठ में लगाये गये थे और समस्त घोषवासियों का कल्याण करते थे तो आज इस अवस्था में पहुँचकर भी ये दोनों आप पर प्रसन्न ही हैं, जिससे विशाल होने पर भी इन वृक्षों ने पृथ्वी पर गिरते समय तुम्‍हारे बालक को जीवित छोड़ दिया है। इस व्रज में यह तीसरी बार औत्पातिक घटना हुई है। पूतना का विनाश और छकड़े का उलटना और वृक्षों का धराशायी होना- ये तीन उपद्रव यहाँ हो चुके हैं। इस स्थान पर हमारे इस व्रज का रहना अब उचित नहीं जान पड़ता; क्योंकि यहाँ अशुभ परिणाम की सूचना देने वाले उत्पात दिखाई देने लगे हैं’। इतने ही में नन्द गोप ने सहसा बन्धन खोलकर श्रीकृष्ण को ओखली से मुक्त कर दिया और मानो वह बालक मरकर पुन: जी उठा हो, ऐसा मानते हुए वे देर तक उसे अपनी गोद में चिपकाये रहे। उस समय वे कमलनयन श्रीकृष्ण की ओर देखते-देखते तृप्त नहीं होते थे। तदनन्तर नन्द गोप यशोदा की निन्दा करते हुए घर में गये, साथ ही अन्यंत सब गोप भी व्रज में ही पधारें। उस दाम अर्थात रस्सी से उदर में बांधे जाने के कारण श्रीकृष्ण का नाम दामोदर हो गया। व्रज में गोपियां उसी नाम से उनकी लीलाओं का गान करने लगीं। भरतश्रेष्ठ! व्रज में निवास करते समय बालक श्रीकृष्ण की ऐसी ही आश्चर्यमयी लीलाएं होती रहती थीं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमलार्जुनभंगविषयक सातवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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