हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 72 श्लोक 15-29

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्विसप्ततितम अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

अथवा वृत्रासुर-विनाशक इन्द्र! यह सम्पूर्ण जगत भावी कर्म फल से प्रेरित होता रहता है। विधि के विधान का उल्लंघन करना असम्भव है। सहसा किया हुआ कार्यों का आरम्भ अच्छा नहीं माना गया है। तुमने जो सहसा यह कार्य आरम्भ कर दिया है, यह अवश्य तुम्हें लघुता (पराजय) प्रदान करेगा।' तब महेन्द्र ने महात्मा बृहस्पति से कहा- ‘गुरुदेव! ऐसी परिस्थिति में आज जो मेरा कर्तव्य हो, उसे आप बताने की कृपा करें’। यह सुनकर भूत और भविष्य के तत्त्व को जानने वाले उदार बुद्धि धर्मात्मा व बृहस्पति ने नीचे मुंह करके कुछ देर तक सोच-विचार कर उनसे कहा- ‘देवेन्द्र! अब तुम अपने पुत्र जयन्त के साथ युद्ध भूमि में उपस्थित हो श्रीकृष्ण के साथ युद्ध और उसमें विजय पाने का प्रयत्न करो। तब तक मैं ऐसा प्रयत्न करूंगा, जिससे न्यायसंगत परिणाम प्रकट होगा’।

ऐसा कहकर बृहस्पति जी क्षीरसागर के तट पर गये। वहाँ उन्होंने महात्मा कश्यप मुनि से सब बातें कह सुनायीं। वह सुनकर कश्य‍प जी ने कुपित हो बृहस्पति जी से कहा- ‘अजी, यह युद्ध अवश्य होगा। सर्वथा होकर रहेगा- इसमें संशय नहीं है। महर्षि देवशर्मा की पत्नी रुचि सर्वथा उन्हीं के समान शुद्ध आचार-विचार वाली थी; परंतु इन्द्र ने उसे प्राप्त करने की इच्छा की। इससे मुनि ने इन्द्र का अनिष्ट-चिन्तन किया। वही यह दोष इस समय इन्द्र पर पड़ रहा है।[1] मुने! उस दोष की शान्ति के लिये ही मैंने यह जलवास रूप तब आरम्भ किया था तथापि यह अत्यन्त‍ दारुण दोष प्राप्त हो ही गया। तपोधन! अत: अब मैं अदिति के साथ इस युद्ध के अवसर पर मध्य‍स्थ होकर आऊंगा और यदि दैव अनुकूल रहा तो दोनों को युद्ध से रोकूंगा। तब धर्मात्मा बृहस्पति ने मरीचिनन्दन कश्यप से इस प्रकार कहा- 'तपोधन! अब युद्ध का अवसर प्राप्त हो गया। अत: आपको वहाँ अवश्य उपस्थित होना चाहिये।'

कश्यप जी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर बृहस्पति को वहाँ से भेज दिया और स्वयं वे भूतगणों के स्वामी रुद्रदेव की आराधना करने के लिये चले गये। वहाँ अदिति के साथ बुद्धिमान भगवान कश्यप ने वर प्राप्ति की इच्छा रखकर सौम्यरूपधारी परमात्मा वृषध्वज शिव की पूजा की। उस समय मरीचिनन्दन कश्यप ने स्तुति करने के योग्य जगद्गुरु भगवान शंकर को वेदोक्त मन्त्रों तथा स्वरचित स्तोत्रों द्वारा स्त‍वन किया।

कश्यप जी बोले- 'जो विष्णुरूप से वामन-अवतार के समय महान पग बढ़ाकर त्रिलोकी को नाप लेने में समर्थ हुए हैं, यह सम्पूर्ण विश्व जिनका कर्म है, जो सबके ईश्वर हैं, जगत की सृष्टि करने वाले हैं, धर्म के द्वारा जिनका साक्षात्कार होता है, जो अभीष्ट मनोरथों के स्वामी तथा उनकी पूर्ति करने वाले हैं, जो सर्वस्वरूप, सात्त्विकीधृति वाले योगियों के जो ये चिन्मय धाम हैं, उन दिव्य स्वरूप आप भगवान विश्वेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह प्रसंग महाभारत अनुशासन पर्व के चालीसवें अध्याय में देख लेना चाहिये।

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