हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 71 श्लोक 40-54

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 40-54 का हिन्दी अनुवाद

जैसे तिनकों में प्रज्वलित हुई अग्नि फैल रही हो, उसी प्रकार मैंने पूर्वकाल में दैत्य समूहों के बीच श्रीहरि को जटा, कालामृग चर्म एवं पलाश दण्ड धारण किये वामन ब्रह्मचारी के रूप में विचरते देखा है। जब सारा संसार दानवरूपी एकार्णव में मग्न था, उस समय भी जगत के हित की कामना से इस विश्व को दानवहीन करते हुए श्रीगोविन्द का मैंने दर्शन किया है। अमरश्रेष्ठ! मैं झूठ नहीं बोलता हूं, जनार्दन श्रीकृष्ण तुम्हारे इस पारिजात को अवश्य द्वारकापुरी में ले जायेंगे। वासव! तुम भ्रातृ-स्नेह से अभिभूत होकर श्रीकृष्ण पर प्रहार नहीं करोगे और श्रीकृष्ण भी तुम पर बड़े भाई के नाते प्रहार नहीं करेंगे। देव! यदि मेरी कही हुई बात तुम किसी तरह नहीं सुनोगे तो नीति-धर्म के जानने वाले जो तुम्हारे हितैषी मन्त्री हों, उनसे जाकर पूछो।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! नारद जी के ऐसा कहने पर देवेश्वर इन्द्र ने उन जगद्गुरु मुनि को इस प्रकार उत्तर दिया- ‘ब्रह्मन! आप श्रीकृष्ण को जो ऐसे प्रभावशाली बता रहे हैं, वह ठीक है। मुने! उनके ऐसे प्रभाव की चर्चा मैंने बहुत बार सुनी है। जब श्रीकृष्ण ऐसे महान हैं तब मैं सतपुरुषों के धर्म का स्मरण करते हुए निश्चय ही उन्हें देने योग्य होने पर भी परिजात-वृक्ष नहीं दूंगा। मुने! आपका कल्याण हो। जो महान प्रभावशाली पुरुष हैं, वे इस छोटी सी वस्तु के लिये मुझ पर रुष्ट नहीं होंगे, ऐसा सोचकर उन सर्वगुणसम्पन्न श्रीकृष्ण से निर्भय होकर स्थित हूँ। महान प्रभावशाली महापुरुष सदा सहि‍ष्णु होते हैं और ज्ञान दृष्टि रखने वाले बडे़-बूढ़ों की बात सुनते हैं।

धर्मात्माओं में श्रेष्ठ सर्वज्ञ महात्मा श्रीकृष्ण इस छोटे से कारण पर अपने बड़े भाई के साथ विरोध नहीं करेंगे। जैसे अधोक्षज भगवान विष्णु ने मेरी माता को इस प्रकार वरदान दिया है, वैसे ही उन्हें अपने ज्येष्ठ पुत्रों के अपराध को भी सहन करना चाहिये। जैसे स्वयं अपनी ही इच्छा से भगवान विष्णु उपेन्द्र-भाव को प्राप्त हुए (मेरे छोटे भाई के रूप में अवतीर्ण हुए), उसी प्रकार उन्हें अपने बड़े भाई मुझ इन्द्र का सम्मान भी करना चाहिये। क्या पूर्वकाल में (वामन-अवतार के समय) इन विष्णु देव ने मेरी ज्येष्ठता नहीं स्वीकार की थी, उसी तरह इस समय भी यदि मधुसूदन चाहें तो स्वयं ही ज्येष्ठ हो जायँ।' धृति और बुद्धि से युक्त धर्मात्मा तपोधन नारद बल-विनाशन इन्द्र को अपने निश्चय पर अटल देख उन देवेश्वर से विदा ले यदुपति श्रीकृष्ण से सुरक्षित कुशस्थली (द्वारका) पुरी को चले गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभांग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में पारिजातहरण के प्रसंग में नारद जी का स्वर्गलोक से पुनरागमनविषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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