हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 16-26 का हिन्दी अनुवाद
मुने! नारद! जब-जब देवासुर-संग्राम के अवसर जाते हैं, तब-तब विष्णु अपनी इच्छा से ही युद्ध करते हैं (जी में आया तो करते हैं और नहीं तो चल देते हैं)। यह बात आपको अच्छी तरह ज्ञात है। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ बात बढ़ाने से कुछ होने-जाने वाला नहीं है; यदि प्रारब्धवश युद्ध ही होना है तो हो; परंतु नारद जी! आप मेरी ओर से इस बात के साक्षी हैं कि हम लोगों को अपने भाई से कलह करना अभीष्ट नहीं है। यदि केशव मेरी छाती में गदा मारने को ही उद्यत हैं तो पुलोमकुमारी शची का नामोल्लेख करके ऐसी बात कहने में यहाँ कौन-सा लाभ दिखायी देता है? मेरे बुद्धिमान पिता भगवान कश्यप मेरी माता अदिति के साथ क्षीरसागर में जलवास करने के लिये गये हैं। वे दोनों मेरे प्रति ऐसी बात कह सकते थे। (क्योंकि माता-पिता को यह अधिकार है कि वे पुत्र को राह पर लाने के लिये उसे ताड़ना दे)। परंतु मेरे भाई श्रीकृष्ण अजितात्मा हैं, अपने मन पर काबू नहीं पा सके हैं; अत: कामवश एक स्त्री के कहने मात्र से मुझ अपने गुरुजन के प्रति उन्होंने ऐसी बात कह डाली है। विप्रवर! स्त्रियों को सर्वथा धिक्कार है तथा उस राज्यसभा को भी धिक्कार है, जहाँ स्त्री के वशीभुत हुए श्रीकृष्ण ने मुझ पर इस प्रकार आक्षेप किया है। महामुने! महर्षि कश्यप के कुल में अब तक कोई निन्दनीय बात नहीं देखी गयी है तथा जहाँ मेरी माता का जन्म हुआ है, उस दक्षकुल में भी ऐसी कोई बात देखने मे नहीं आयी है। नारद! काम और राग से आक्रान्त हुए श्रीकृष्ण ने न तो मेरे बड़प्पन का आदर किया है और न मेरे देवराज पद का ही सम्मान किया है। निष्पाप देवर्षे! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने ऐसा कहा था कि सदाचारी और ज्ञानसम्पन्न भाई हजारों स्त्रियों और पुत्रों से बढ़कर हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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