हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 5 श्लोक 17-32

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद

गोवर्धन के निकटवर्ती शुभ प्रदेशों मे पहुँचकर उन्होंने गौओं का व्रज देखा, जो यमुना जी के तट से जुड़ा हुआ था और शीतल वायु उसकी सेवा करती थी। विशेष प्रकार की बोली बोलने वाले शिकारी जीवों के रहने से उस प्रदेश की रमणीयता बढ़ गयी थी। वहाँ लता और वल्लरियों से लिपटे हुए बड़े-बड़े वृक्ष शोभा पा रहे थे। घास चरती और थनों से दूध झरती हुई गौओं से वह स्थान अलंकृत था। वहाँ गौओं के चरने-फिरने के लिये सम भूमि थी, विषम नहीं; जलाशयों में उतरने के लिये जो मार्ग थे, वे भी सम ही थे। बैलों या सांड़ों के कंधों की टक्कर से तथा उनके सींगो की रगड़ से वहाँ के कई वृक्ष घिसे हुए दिखाई देते थे। वहाँ गीध और मांसभक्षी वन बिलाव आदि के पीछे मांस की इच्छा रखने वाले बाज तथा वसा और मेदा खाने वाले गीदड़, चीते एवं बाघ-सिंह आदि लगे हुए थे। इन सबके द्वारा वह प्रदेश घिरा हुआ था।

सिंहों के दहाड़ने से वहाँ का वन-प्रान्त गूँजता रहता था। नाना प्रकार के पक्षी वहाँ सब ओर व्याप्त थे। उस व्रज में जो वृक्षों में फल लगे थे, वे बड़े स्वादिष्‍ट थे। वहाँ घास-पात और लता-बेलों की बहुलता थी। इस प्रकार वह गोव्रज गौओं के रँभाने के शब्द से मुखरित था। गोपागंनाओं से घिरा हुआ वह भूभाग बड़ा रमणीय दिखायी देता था। बछड़ों के बोलने से वहाँ का स्थान सब ओर से गूँजता रहता था। छकड़ों की गोलाकार श्रेणियों से वहाँ का भूभाग बहुत विशाल जान पड़ता था। वहाँ चारों ओर कांटों के बाड़ लगे थे। सीमाओं पर जंगल के गिरे हुए बड़े-बड़े वृक्ष रखे गये थे। बछड़ों के लिये गाड़े गये खूँटों और बांधने की रस्सियों से उस व्रज की बड़ी शोभा हो रही थी। वहाँ धरती पर सब ओर सूखे कंडे (या करसी) के ढेर पड़े थे। कुटी और मठ और चटाइयों अथवा तृण-समूह से छाये गये थे। कुशलपूर्वक घूमने-फिरने के लिये वहाँ बहुत-से स्थान थे (अथवा उत्तम लक्षणों से युक्त भटों के प्रचार से वह व्रज समृद्धिशाली प्रतीत होता था।[1]) वह भूभाग हष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा था। वहाँ मोटी और पतली रस्सियों की बहुतायत थी। दूध-दही मथने के समय जो शब्द प्रकट होता था, वह वहाँ सब ओर फैला हुआ था। वहाँ तक्र (मट्ठा) बहाने के लिये बहुत-सी नालियां बनी थीं। दही के ऊपर का जो सारभाग (मण्ड) होता है, उससे वहाँ की मिट्टी गीली हो रही थी। मथानी चलाने के समय गोपियों के हाथों के कंगन खन-खनाते रहते थे। उनकी मधुर झनकार वहाँ सब ओर गूंजती रहती थी। उस व्रज में काकपक्ष (पीछे की ओर सिर पर बड़े-बड़े बाल) धारण करने वाले बालक खेल रहे थे।

ग्वालों के अखाड़ों से वहाँ का भूभाग भरा था। गौओं के बाड़ों (रहने के स्थानों) के दरवाजों पर काठ के कुंडे लगे हुए थे। बीच में गौओं के ठहरने, विश्राम करने आदि के लिये पर्याप्त स्थान था। ऐसी गोशालाओं से वह व्रज भरा हुआ था। आग पर खौलाये जाते हुए घृत की मनोरम गंध से वहाँ की वायु सुवासित हो रही थी। नीली-पीली साड़ियों से सुशोभित तरुणी स्त्रियां उस व्रज को अलंकृत किये हुए थीं। वन के फलों का कर्णभूषण धारण किये बहुत-सी गोपकन्‍याएं वहाँ सिर पर घड़े लिये आती-जाती थीं। उनके स्तनों के अग्रभाग चोली से बँधे थे और उन पर आंचल पड़ा हुआ था। यमुना जी के तट पर गये हुए मार्ग से जल लाने वाली उन गोपकुमारियों से वह व्रज घिरा हुआ-सा जान पड़ता था। यमुना जी के तट पर गये हुए मार्ग से जल लाने वाली उन गोपकुमारियों से वह व्रज घिरा हुआ-सा जान पड़ता था। ग्वालों के शब्द से गूंजते हुए उस गो व्रज में प्रवेश करते समय नन्दराय जी को बड़ा हर्ष हुआ। वृद्ध गोपों तथा बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। तत्पश्‍चात उन्होंने चारों ओर से घिरे हुए उस सुखदायक आवास स्थान में रहने के लिये रुचि प्रकट की। वसुदेव जी को सुख देने वाली रोहिणी देवी जहाँ रहती थीं, वहीं उन्होंने व्रज में गुप्तरूप से रहने वाले बाल सूर्य के समान तेजस्वी श्रीकृष्ण को सुला दिया।

इस प्रकार श्री महाभारत के अन्तर्गत विष्णु‍ पर्व में नन्द जी का गोव्रज में गमनविषयक पांचवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐसा अर्थ नीलकण्ठ जी ने किया है।

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