हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 58 श्लोक 27-37

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टपश्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद

'सुरश्रेष्ठ! पूर्वकाल में देवताओं की जो गुप्त सभा बैठी थी, जहाँ हम लोग उपस्थित थे, वहाँ तुम भी थे, अत: देवताओं का जो गूढ़ प्रयोजन है, उसे तुमने भी सुना ही है। अत: यहाँ मेरे रहने के लिये अवश्य ही सुन्दन सदन का निर्माण करना होगा। उत्तमव्रतधारी देव! मेरे निमित्त अपने शिल्पकौशल का प्रदर्शन करने के लिये तुम्हें इस नगरी को बसाना और इसके भवनों का निर्माण करना है। यह पुरी सब ओर से मेरे प्रभाव के अनुरूप गृहों द्वारा सुशोभित हो। महामते! जैसे स्वर्ग में अमरावतीपुरी सबसे श्रेष्ठ है, उसी तरह इस पृथ्वी पर यह पुरी जैसे भी सर्वोत्तम हो सके, वैसा ही प्रयत्न करके तुम्हें इसका निर्माण करना है। तुम इस कार्य में समर्थ हो।

मेरा यह स्थान तुम्हें वैसा ही बनाना है, जैसा कि वैकुण्ठ धाम में है। जिससे यहाँ के सब मनुष्य मेरा, इस पुरी-का तथा यदुकुल का वैभव देख सकें’। उनके ऐसा कहने पर बुद्धि के स्वामी प्रजापति विश्वकर्मा ने अनायास ही महान कर्म करने वाले देवशत्रुविनाशक श्रीकृष्ण से कहा- ‘प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब मैं करूँगा; परंतु पुरी के लिये जो भूमि है, यह इस विशाल जनसमुदाय के लिये पर्याप्त नहीं होगी। पुरुषोत्तम! आप चाहें तो यह विस्तृत हो सकेगी। मेरी इच्छा है, इसका सुन्दर विस्तार हो। इसमें चारों समुद्र मूर्तिमान होकर विचरेंगे। यदि जल के स्वामी समुद्र कुछ भूमि छोड़ सकें तो यह पुरी भलीभाँति विस्तृत एवं उत्तम लक्षणों से सम्पन्न हो सकेगी’।

विश्वकर्मा के ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण, जो पहले से ही समुद्र से भूमि लेने का निश्चय कर चुके थे, सरिताओं के स्वामी सागर से बोले- ‘समुद्र! यदि मेरे प्रति तुम्हारी आदर बुद्धि है तो तुम मेरे कहने से बारह योजन तक जलाशय में से अपने स्वरूप (जल) को समेट लो। तुम्हारे जगह दे देने पर यहाँ बनने वाली इस पुरी का प्रदेश पर्याप्त विस्तार को प्राप्त हो जायगा तथा यह रमणीय पुरी मेरे समस्त सैन्य समूह का भार सहन कर सकेगी’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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