हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 52 श्लोक 32-45

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्विपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! सौभ विमान के अधिपति राजा शाल्व की बात सुनकर वे सभी श्रेष्ठ नरेश हर्ष में भरकर महाबली जरासंध से बोले– ‘हम लोग अवश्य ऐसा ही करें’ राजन! उन राजाओं की बात सुनकर आकाशवाणी की बात याद करके पृथ्वी पति जरासंध का मन उदास हो गया।

जरासंध बोला– आज से पहले सब राजा दूसरे राजाओं के भय से पीड़ित होने पर मेरी शरण में आते थे और भृत्यन, सेना तथा वाहनों सहित अपने खोये हुए राज्य को मेरे सहयोग से पुन∶ प्राप्त कर लेते थे। इस समय यहाँ सब राजा मुझे दूसरे का आश्रय लेने के लिये प्रेरित कर रहे हैं। जैसे रतिलोलुप नारी अपने पति के प्रति द्वेष होने से उसे छोड़कर दूसरे पुरुष का आश्रय लेती है (उसी प्रकार मैं अपने बल का आश्रय न लेकर दूसरे का सहारा लेने को उद्यत हुआ हूँ) अहो! दैव बड़ा प्रबल है, उसे लौटाया नहीं जा सकता; क्योंकि आज मैं श्रीकृष्ण से डरकर दूसरे अधिक बलशाली राजा का आश्रय ग्रहण कर रहा हूँ निश्चय ही मैं निरुपाया हो गया हूँ, अत∶ मुझे दूसरे का आश्रय लेना पड़ेगा; परन्तु् ऐसे जीवन से तो मेरा मर जाना ही अच्छां है।

नरपतियों! मैं दूसरे की शरण नहीं लूँगा। श्रीकृष्ण हो, बलदेव हो अथवा जो कोई भी राजा क्यों न हो, जो मुझे मारेगा, उसका मैं डटकर सामना करुँगा जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है कि मुझे कोई दूसरा मारने वाला है। यही मेरी बुद्धि का निश्चय है, यही सत्पुरुष का व्रत है। इसके विपरीत मैं दूसरे का आश्रय लेने में असमर्थ हूँ आप सदाचारी नरेशों को श्रीकृष्ण बाधा न पहुँचायें, इस उद्देश्य से राजाओं की रक्षा के लिये मैं दूत दूँगा अर्थात दूत भेजना स्वीकार करुँगा श्रेष्ठ राजाओं! उस दूत को आकाश मार्ग से जाना चाहिये, जिससे यहाँ से जाते समय उसे श्रीकृष्ण बाधा दे सकें इस पर भली-भाँति विचार करके ही तुम लोग दूत भेजें। श्रीमान सौभपति बलवान राजा शाल्व अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा के समान पराक्रमी हैं ये सूर्यतुल्य तेजस्वी रथ (विमान) द्वारा अपने नगर को जाते हैं। ये दूतकर्म करते समय हम लोगों की ओर से जैसी बात कहनी चाहिये, वैसी ही कहें, जिससे श्रीकृष्ण के साथ हम लोगों का युद्ध उपस्थित होने पर वह यवनराज कालयवन हम नरेशों की मण्डली से आकर मिल जाय।

वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! फिर राजा जरासंध ने सौभविमान के स्वामी बलवान राजा शाल्व से कहा– ‘मानद! जाओ, सम्पूर्ण नरेशों की सहायता करो। तुम ऐसी नीति का प्रयोग करो, जिससे यवनराज चढ़ाई करे, श्रीकृष्ण को जीते और हम लोगों को संतोष हो’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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