हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 50 श्लोक 57-68

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 57-68 का हिन्दी अनुवाद

यह रणभूमि सूनी न हो जाय- इसके लिये यहाँ चार श्रेष्ठ राजा बैठे रहें- जरासंध, सुनीथ, महारथी रुक्मी और सौभविमान के अधिपति राजा शाल्व।

वैशम्पायन जी कहते हैं- इस प्रकार चित्रांगद के द्वारा कही गयी देवेश्वर इन्द्र की आज्ञा सुनकर उन सभी श्रेष्ठ नरेशों ने श्रीकृष्ण के अभिषेक में जाने का विचार कर लिया। बुद्धिमान नरेश जरासंध ने भी उन्हें जाने की अनुमति दे दी। फिर तो वे राजा भीष्मक को आगे करके अपनी सेनाओं के साथ वहाँ गये। महाबाहु भीष्मक भी अपनी सेना के साथ दूसरे राजाओं को साथ लिये कैशिक के भवन में, जहाँ महाबाहु श्रीकृष्ण विराजमान थे, गये। उस समय अपने पुत्र के दोष से उनका चित्त चिन्ता की आग में जल रहा था।

भगवान के स्नान के लिये सुन्दर सुरम्य देवसभा इस भूतल पर उतर आयी थी, जो दूर से ही प्रकाशित हो रही थी। वह ध्वजा, पताकाओं से अलंकृत थी। उसमें दिव्य रत्नों की प्रभा सब ओर व्याप्त हो रही थी। दिव्य ध्वजाएँ फहराती थीं। दिव्य वस्त्रों की पताकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं और दिव्य आभूषणों (सजावट की सामग्रियों) से वह सभा विभूषित थी। उसमें जगह-जगह दिव्य पुष्पों की मालाएँ लटक रही थीं। दिव्य गन्धों से वह सभा सुवासित थी। विमान पर चलने वाले कान्तिमान देवताओं ने उसे सब ओर से घेर रखा था।

दिव्य अप्सराओं के समुदाय, विद्याधरों के समूह, गन्धर्व, मुनि और किन्नर सब ओर आकाश में स्थित हो देवेश्वर श्रीकृष्ण का यश गाते थे तथा मुनि, सिद्ध एवं महर्षि उनकी स्तुति करते थे। देवताओं की दुन्दुभियाँ आकाश में स्वयं ही बज उठीं। आकाश में खड़े हुए देवता सब ओर से बारंबार पन्चयोनिजनित[1] सुगन्धचूर्ण गिरा रहे थे। देवताओं के साथ शची वल्लभ देवेन्द्र स्वयं आकर एक श्रेष्ठ विमान पर आरूढ़ हो आकाश में स्थित थे और सब लोग उन्हें प्रत्यक्ष देख रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विभिन्न वृक्षों के मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प और फल- ये पाँच योनि अर्थात कारण हैं। इनसे जो गन्धचूर्ण तैयार किये गये हैं, उन्हें पञ्चयोनिजनित कहते हैं। अथवा मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन नामक जो पाँच देववृक्ष हैं, उनसे प्रकट हुए दिव्य गन्धचूर्ण को भी यहाँ पञ्चयोनिजनित कहा गया है।

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