हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद
इन प्रभावशाली चक्रधारी विष्णु ने ये तथा और भी इसी तरह के बहुत-से दिव्य छद्मरूप समय-समय पर धारण किये हैं। इसलिये मैं आप लोगों के हित की इच्छा से यह कह रहा हूँ कि श्रीकृष्ण देवताओं के आदि कारण एवं असुर-विनाशक विष्णु हैं। मैं उन्हें ऐसा ही समझता हूँ। वे जगत् की उत्पत्ति के स्थानभूत पुराण पुरुष अविनाशी भगवान नारायण हैं। वे ही समस्तभूतों की सृष्टि करने वाले तथा व्यक्ताव्यक्त स्वरूप सनातन परमात्मा हैं। सम्पूर्ण लोक मिलकर भी उन्हें पराजित नहीं कर सकते। सारा संसार उनके चरणों में मस्तक झुकाता है। वे आदि, मध्य और अन्त से रहित, क्षर (सर्वभूतमय), अक्षर (कूटस्थ) और अविकारी हैं। वे ही स्वयंभू, अजन्मा, सदा स्थिर रहने वाले तथा चराचर प्राणियों के लिये अजेय हैं। उन्हीं को मैं देवेन्द्र के शत्रुओं का विनाशक, त्रिलोकीनाथ, त्रिविक्रमरूपधारी विष्णु मानता हूँ। यही मेरी बुद्धि का निश्चय है। ये विष्णु ही मथुरा में चक्रवर्ती राजाओं के महान एवं विशाल कुल में प्रकट हुए हैं। अन्यथा दूसरे किसी मनुष्य का वाहन गरुड़ कैसे हो सकते हैं। विशेषतः जब भगवान जनार्दन राजकन्या की प्राप्ति के लिये पराक्रम प्रकट करने पर तुल जायँगे, तब कौन ऐसा बलवान पुरुष है, जो आज गरुड़ के सामने खड़ा हो सकेगा। इस स्वयंवर के लिये साक्षात विष्णु यहाँ पधारे हैं। विष्णु का आगमन होने पर हमारे लिये जो महान दोष (बाधा) उपस्थित है, उसे मैंने बताया। अब आप लोग भी इस पर विचार करके आगे जो कुछ करना हो, वह करें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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