हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चत्वाथरिंश अध्याय: श्लोक 25-38 का हिन्दी अनुवाद
आप सहस्र सिर वाले अनन्त देव के मस्तक पर जो सूर्य के समान उद्भासित होता था, वह मुकुट समुद्र से निकालकर मैं यहाँ ले आई हूँ। यही है वह मुकुट इसके सिवा वज्रमणि (हीरे)– से विभूषित एक सुवर्णमय कुंडल भी लेती आई हूं, जो आपके एक कान का दिव्यभूषण है। यह आदिपद्म और पद्माक्ष कहलाता है। जो समुद्र में ही मिल सकते हैं, ऐसे कितने ही नीले रंग के रेशमी वस्त्र (अथवा आपकी इच्छा के अनुरूप नील कौशेय वस्त्र) तथा यह पीन तरल हार, जो समुद्र में ही विद्यमान था, मैं आपके लिए लाई हूँ। आप इसे सादर ग्रहण करें। देव! यह सब आपकी पुरातनभूषण सामग्री है। इसे ग्रहण कीजिए। महाबाहो! यह आपके भूषण ग्रहण करने का समय है। आपसे ही इन भूषणों की शोभा है, इनसे आपकी नहीं।' वह अलंकार तथा उन तीनों देवांगनाओं को ग्रहण करके बलदेव जी शरत्काल के चंद्रमा की भाँति शोभा पाने लगे। तदन्तर वे नील कमल और मेघ के समान श्यामकान्ति वाले श्रीकृष्ण के साथ मिलकर ग्रह युक्त चंद्रमा के समान सुशोभित होने लगे। उस समय उनको बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। वे दोनों भाई जैसे घर में बैठे हों, उस प्रकार बातचीत करने लगे। इसी समय विनतानंदन गरुड़ बड़े वेग से विशाल मार्ग तय करके वहाँ आए। तेजस्वी गरुड़ उस समय एक संग्राम से छूट कर आए थे। दैत्यों के प्रहारों के चिह्न उस समय भी उनके अंगों में अंकित थे। वे देवताओं की विजय चाहने वाले तथा दिव्य पुष्पों की माला और दिव्य चंदन धारण करने वाले थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ श्री का अर्थ शोभा की अधिष्ठात्री देवी है। साक्षात भगवती लक्ष्मी तो भगवान विष्णु की अनन्यानुरागिणी पतिव्रता पत्नी हैं। यहाँ मधु, कान्ति और शोभा– इन तीन लोक सामान्य वस्तुओं की अधिष्ठात्री देवियों का ही उल्लेख किया है– ऐसा समझना चाहिए।
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