हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 33-44 का हिन्दी अनुवादश्रीकृष्ण ने उस हाथी के साथ बालकों के समान खिलवाड़ करके कंस के प्रति मन में द्वेष लेकर कुवलयापीड़ को मार डालने का विचार किया। उन्होंने उसके ललाट में कुम्भ स्थल से नीचे पैर लगाकर दोनों हाथों से एक दाँत उखाड़ लिया और उस समय उसी से उसको पीटना आरम्भ किया। उस वज्र तुल्य दाँत से पीटा जाता हुआ वह हाथी मल-मूत्र त्यागने और आर्तभाव से चीत्कार करने लगा। श्रीकृष्ण ने जिसके अंगों को पीट-पीट कर जर्जर बना दिया था, उस आर्तचित्त हाथी के दोनों गालों से वेगपूर्वक भूरि-भूरि रक्त की धारा बहने लगी। इधर बलराम जी उसकी पूँछ पकड़कर बड़े वेग से खींचने लगे, मानो शिला पृष्ठ में आधे शरीर से छिपे हुए किसी सर्प को बगरुड़ खींच रहे हों। हाथी को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके उसी दाँत से एक प्रहार करके मतवाले महावत को भी मौत के मुख में डाल दिया। तदनन्तर दाँत वाले हाथियों में श्रेष्ठ वह कुवलयापीड दन्तहीन हो महान आर्तनाद करके वज्र से विदीर्ण हुए पर्वत के समान महावत सहित गिर पड़ा। फिर उन दोनों पुरुषप्रवर रणकर्कश वीरों ने फाटक के खम्भे आदि लेकर हाथी के पाद रक्षकों को भी मार डाला। उन सबका संहार करके वे दोनों भाई रंगस्थल में प्रविष्ट हुए, दोनों अश्विनी कुमार इच्छानुसार स्वर्ग से भूतल पर उतर आये हों। उस समय वृष्णि, अन्धक तथा भोजकुल के यादवों ने वनमालाधारी श्रीकृष्ण-बलराम को देखा। उन दोनों वीरों ने गर्जने, किलकारने, भुजाओं पर ताल ठोकने, सिंहों के समान दहाड़ने और ताली पीटने आदि के द्वारा वहाँ के जनसमुदाय को हर्ष से उत्फुल्ल कर दिया। भारत! व्यर्थ बुद्धि वाला भोजराज कंस उन दोनों भाइयों को उपस्थित देख, उनके प्रति पुरवासियों के अनुराग और हर्ष को लक्ष्य करके विषाद में डूब गया। इस प्रकार कमलनयन श्रीकृष्ण ने गरजते हुए गजश्रेष्ठ कुवलयापीड़ को मारकर अपने पूर्वज बलराम जी के साथ उस समुद्र समान विशाल जन समुदाय में प्रवेश किया। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में कुवलयापीड हाथी का वध विषयक उनतीसवाँ अभ्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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