हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 27 श्लोक 19-38

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्‍तविंश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद

उस गली में गुणक नाम से प्रसिद्ध एक माली था, जो माला बेचकर ही जीविका चलाता था। उसकी बातें बड़ी प्रिय लगती थीं। वह धनवान होने के साथ ही देखने में सुन्‍दर भी था। उस समय श्रीकृष्‍ण ने माला के लिये ही मुख से निकली हुई अपनी मधुर वाणी द्वारा उस निर्भय मालाकार से कहा- 'हम दोनों के लिये मालाएं दे दो।' माला से ही जीवन-निर्वाह करने वाले उस माली ने प्रसन्न होकर उन दोनों भाइयों को बहुत-सी मालाएं अर्पित कीं। वे दोनों देखने में बड़े प्रिय लगते थे। माली ने उनसे कहा- 'यह सब आपकी ही सम्‍पति है।' उसकी बात सुनकर श्रीकृष्‍ण बड़े प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने संतुष्‍ट-चित्त से गुणक को यह वर दिया- 'सौम्‍य! मेरी प्रसन्नता से प्रकट होने वाली लक्ष्‍मी तुम्‍हें धन-राशि से सम्‍पन्न कर देगी।' माली उस वर को पाकर शान्‍त भाव से नतमस्‍तक हो गया। उसने श्रीकृष्‍ण के चरणों में मस्‍तक रख दिया और उस वर को सादर शिरोधार्य किया। उस समय माली ने यही समझा कि ये दोनों यक्ष हैं; उसने कंस से अत्‍यन्‍त भयभीत होकर उन्‍हें कुछ उत्तर नहीं दिया। तदनन्‍तर सड़क पर जाते हुए उन दोनों वसुदेवपुत्रों ने कुब्जा को देखा, जो हाथों में अनुलेपन (अंगराग) का पात्र लिये हुए थी।

उसे देखकर श्रीकृष्‍ण ने कहा- 'कमलनयने कुब्‍जे! तुम यह किसके लिये अनुलेपन लिये जा रही हो, शीघ्र बताओ!' यह सुनकर कुब्‍जा मुस्‍कराती हुई उनके सामने हो गयी। उसने कमलनयन श्रीकृष्‍ण से मेघ के समान गम्‍भीर वाणी में कहा- 'कमलनयन! मनोहर मुख वाले वीर! मैं तो राजा के स्‍नान-गृह को जा रही हूँ। तुम्‍हें अंगराग चाहिये तो ले लो। तुम्‍हें देखते ही मैं विस्‍मय से विमुग्‍ध हो उठी हूँ। तुम्‍हें जैसा अंगराग चाहिये, वही ग्रहण करो। मैं तुम्‍हारे लिये ठहर गयी हूँ। तुम्‍हारा कल्‍याण हो, आओ मेरे घर। तुम मेरे हृदय वल्‍लभ हो। सौम्‍य! तुम कहाँ से आते हो कि मुझे नहीं जानते। मैं तो महाराज कंस की प्‍यारी दासी हूँ। उन्‍होंने मुझे अंगराग के ही कार्य में लगा रखा है।' वहाँ खड़ी होकर हँसती हुई कुब्‍जा से श्रीकृष्‍ण ने कहा- 'सुमुखि! तुम हम दोनों भाइयों के शरीर के अनुरूप अंगराग दे दो। हम पहलवान हैं और इस देश में अतिथि के रूप में आये हैं। इस राज्‍य में जो अत्‍यन्‍त समृद्धिशाली, विशाल दिव्य धनुष है, उसे ही देखने के लिये हम लोगों का यहाँ आना हुआ है’। तब कुब्‍जा ने श्रीकृष्‍ण से कहा- 'मेरी दृष्टि में तुम परमप्रिय हो, अत: शान्‍तभाव से यह राजोचित अंगराग ग्रहण करो।' अंगों में अंगराग लग जाने पर मनोहर शरीर वाले वे दोनों भाई बड़ी शोभा पाने लगे। उस समय वे ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे दो सांड़ यमुना जी के जल में गोता लगाकर सारे अंगों में कीचड़ लपेटे आ रहे हों।

तदनन्‍तर लीला विधि को जानने वाले श्रीकृष्‍ण ने अपने हाथ की दो अँगुलियों से कुब्‍जा के कुबड़ के मध्‍यभाग में धीरे से दबाया (इससे कूबड़ सीधा हो गया)। मेरा कूबड़ बैठ गया, ऐसा जानकर सुन्‍दर एवं उन्नत अंग वाली कुब्‍जा पवित्र मुस्कान से सुशोभित हो हँसने लगी। उसके स्‍तन प्रान्‍त उभरकर ऊँचे हो गये और वह सीधी लकड़ी पर चढ़ी हुई लता के समान शोभा पाने लगी। फिर तो मतवाली-सी होकर वह श्रीकृष्‍ण से प्रेमपूर्वक बोली- 'प्रियतम! अब तुम कहाँ जाओगे? मैंने तुम्‍हें रोक लिया, यहीं रहो और मुझे अंगीकार करो।' यह सुनकर उन्‍हें हँसी आ गयी। फिर तो वे अविनाशी बन्‍धु एक-दूसरे की ओर देखते हुए ताली पीट-पीटकर जोर-जोर से हँसने लगे। कुब्‍जा के कानों ने उन दाेनों भाइयों के गुण विस्‍तारपूर्वक सुने थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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