हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 24 श्लोक 43-62

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्‍ण की भुजा से टकराकर केशी के सारे दांत मुख से बाहर गिर पड़े। वे ऐसे प्रतीत होते थे, मानो शरद्-ऋतु के जल शून्‍य श्‍वेत बादलों के टुकडे़ बिखरे हुए हों। जब केशी भली-भाँति शान्‍त हो गया, तब अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्‍ण ने अपनी बांह को बहुत बड़ी करके उस दैत्‍य के शरीर को बलपूर्वक बीच से चीर डाला। उस युद्ध स्‍थल में श्रीकृष्‍ण की भुजा द्वारा फाड़े गये केशी का मुख विकराल हो उठा। वह दानव व्‍यथित होकर बड़े जोर-जोर से आर्तनाद करने लगा। उसके सारे अंग शिथिल हो गये थे। वह चक्‍कर काटता हुआ मुँह से खून उगल रहा था। उसका शरीर कई अंगों से हीन हो चुका था। वह ऐसा दिखायी देता था, मानो किसी पर्वत को बीच से चीर डाला गया हो। श्रीकृष्‍ण की भुजा से जिसका मुँह फट गया था वह दो भागों में बँटा हुआ महाभयंकर असुर दो टुकड़ों में कटे हुए हाथी के समान पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। श्रीकृष्‍ण की भुजा से कटे हुए शरीर वाले केशी का रूप पिनाकपाणि भगवान रुद्र द्वारा मारे गये पशु (महिषासुर) के समान अत्‍यन्‍त भयंकर प्रतीत होता था। केशी के शरीर के वे दोनों खण्‍ड दो पांव, आधी पूँछ तथा एक-एक कान, आंख और नासिका रन्‍ध्र से युक्‍त हो पृथ्‍वी पर पड़े-पड़े (अनुपम) शोभा पा रहे थे। केशी के दांतों से घायल हुई श्रीकृष्‍ण की वह बांह ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो वन में गजराज के दांतों के आघात चिह्न से अंकित कोई बहुत बड़ा शाल का वृक्ष हो। इस प्रकार युद्ध में केशी को मारकर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कमलनयन श्रीकृष्‍ण वहीं हँसते हुए खड़े रहे। उस केशी को मारा गया देख गोप और गोपांगनाएं बहुत प्रसन्‍न हुईं। सबके विघ्न नष्‍ट हो गये, कष्‍ट दूर हो गये। स्‍थान और अवस्‍था के अनुसार सभी गोप बारम्‍बार श्रीमान दामोदर का पूजन करते हुए प्रिय वचनों द्वारा उनका अभिनन्‍दन करने लगे।

गोप बोले- 'तात! तुमने अद्भुत कर्म किया है यह समस्‍त जगत के लिये कंटकरूप दैत्‍य आज तुम्‍हारे हाथ से मारा गया। श्रीकृष्‍ण! यह इस भूतल पर घोड़े का रूप धारण करके विचरता था। तात इस अश्‍वरूपधारी पापी दानव केशी का वध करके तुमने वृन्दावन को मनुष्‍यों तथा पशु-पक्षियों के लिये सेव्‍य और क्षेम कारक बना दिया। इस दुरात्‍मा ने हमारे बहुत-से गोप मार डाले थे। बछड़ों पर वात्‍सल्‍य रखने वाली बहुत-सी गौओं का वध कर डाला था; इसके सिवा और भी कितने ही जनपद इसके हाथों नष्‍ट हो चुके थे। यह पापाचारी दानव निश्चय ही संसार का प्रलय करने के लिये उद्यत हुआ था। मनुष्‍य-लोक को मनुष्‍यों से सूना करके यहाँ सुखपूर्वक विचरने की इच्‍छा रखता था। जीवित रहने की इच्‍छा वाला कोई भी पुरुष इसके सामने खड़ा नहीं हो सकता था, फिर भूतल-निवासियों की तो बात ही क्‍या है?' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्‍तर आकाशचारी मुनि विप्रवर नारद जी आकाश में अदृश्‍य भाव से खड़े हो बोले- 'देवेश्‍वर विष्‍णो! कृष्‍ण! कृष्‍ण!! मैं आप पर बहुत प्रसन्‍न हूँ।' नारद जी फिर बोले- 'प्रभो! आपने केशी को मार डालने की इच्‍छा से जो यह दुष्‍कर कर्म किया है, यह केवल आपके ही योग्‍य था अथवा देवलोक में केवल त्रिनेत्रधारी रुद्र ही ऐसा पराक्रम कर सकते थे। तात! मैं युद्ध देखने को सदा ही उत्‍सुक रहता हूँ। अत: अपनी अन्‍तरात्‍मा से आपका ही चिन्‍तन करता हुआ यह मनुष्‍य और अश्व का संग्राम देखने के लिये स्‍वर्गलोक से यहाँ आया था। गोविन्‍द! आपके ‘पूतना वध’ आदि कर्म को भी मैं देख चुका हूँ। किंतु इस केशी के वधरूप कर्म से मुझे विशेष सन्‍तोष हुआ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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