हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 18 श्लोक 42-60

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टादश अध्याय: श्लोक 42-60 का हिन्दी अनुवाद

पक्षियों के समुदाय वर्षा और भय से बड़े कष्‍ट में पड़ गये। वे उड़-उड़कर आकाश में जाते और वहाँ से पुन: नीचे मुख किये गिर पड़ते थे। बहुत-से सिंह रोष में भरकर सजल जलधरों के समान दहाड़ रहे थे। बड़े-बड़े बाघ मथे जाने वाले माँटों के समान गम्‍भीर घोष करते थे। उस पर्वत की विषमभूमि सम हो गयी और समभूमि विषम होकर अत्‍यन्‍त दुर्गम हो गयी, इससे उसके स्‍वरूप में इतना उलट-फेर हो गया कि वह किसी और ही पर्वत-सा दिखायी देता था। उन मेघों के द्वारा अतिवृष्टि होने से उस पर्वत का रूप वैसा ही हो गया, जैसा कि आकाश में भगवान रुद्र के द्वारा स्‍तम्भित किये गये त्रिपुर का रूप दिखायी देता था। भगवान श्रीकृष्‍ण के बाहुदण्‍ड से धारण किया गया तथा काले मेघ समूहों से आच्‍छादित हुआ वह पर्वतरूपी छत्र बड़ी शोभा पा रहा था। सोने की इच्‍छा-सी रखने वाला वह पर्वत आकाश में श्रीकृष्‍ण की बाँह का तकिया लगाकर सोया हुआ-सा जान पड़ता था। उस समय उसका गुफारूपी मुख बादलों की चादर से ढका हुआ था। उस पर्वत पर जो वृक्ष थे, उन पर पक्षियों की बोली नहीं सुनायी देती थी। वहाँ के वन मयूरों की केका-ध्‍वनि से शून्‍य हो गये थे। ऐसे वृक्षों और वनों से घिरा हुआ वह पर्वत अपने शिखरों के साथ निरालम्‍ब-सा प्रतीत होता था। उसके श्रृंग अस्त-व्यस्‍त होकर चक्‍कर काटते हुए जोर-जोर से हिलते थे। उनके कारण उस पर्वत के वन और शिखर ज्‍वर से पीड़ित हुए-से प्रतीत होते थे।

उस पर्वत के मस्‍तक (शिखर) पर पहुँचे हुए वायुरूपी वाहन वाले मेघ देवराज इन्‍द्र के द्वारा शीघ्रता करने के लिये प्रेरित होने पर अक्षय जल की वर्षा करने लगे। भगवान श्रीकृष्‍ण की भुजा के अग्रभाग में लटकता हुआ मेघों सहित वह पर्वत किसी शत्रु राजा के द्वारा पीड़ित हुए देश की भाँति चक्र पर चढ़ा हुआ-सा प्रतीत होता था।[1] वह मेघों का समुदाय उस पर्वत को चारों ओर से घेरकर उसी तरह खड़ा था, जैसे समृद्धिशाली महान जनपद नगर या राजधानी को अपने सामने रखकर चारों ओर निवास करता है। उस पर्वत को अपने हाथ पर रखकर उसे संतुलित रखते हुए प्रजापति के समान खड़े हुए गोपरक्षक भगवान श्रीकृष्‍ण ने मुस्‍कराते हुए कहा- ‘गोपगण! मैंने दिव्य विधि से यह पर्वत का घर बना दिया है, जिसे बनाना देवताओं के लिये भी असम्‍भव था। इसमें वर्षा और वायु का प्रवेश नहीं है। यह गौओं के लिये उत्तम आश्रय है। यहाँ शान्ति पाने के लिये गौओं के यूथ शीघ्र प्रवेश करें। जो जैसे बड़े-छोटे हों, जिनके जैसे यूथ हों, जिनके पास जैसी साधन-सामग्री हो, उसके अनुसार तुम सब लोग सुखपूर्वक उस स्‍थान का बँटवारा कर लो। मैंने वर्षा का भली-भाँति निवारण कर दिया है। मैंने पर्वत को उखाड़कर यहाँ रहने योग्‍य विशाल भूमि का निर्माण कर दिया है। इसकी लम्‍बाई पांच कोस और चौड़ाई एक कोस है। यह महान भूभाग तीनों लोकों की आंधी-पानी से रक्षा कर सकता है, फिर व्रज की तो बात ही क्‍या है?' यह सुनकर भीतर की ओर गौएं के रँभाने के साथ ही गोपों की किलकारियों का तुमुल नाद गूँज उठा और बाहर की ओर मेघों की गम्‍भीर गर्जना होने लगी। तदनन्‍तर गोपों द्वारा एक-एक यूथ के रूप में विभक्‍त की हुई गौएं उस पर्वत के विशाल गुफा में जिसका भीतरी भाग बहुत बड़ा था, प्रवेश करने लगे। भगवान श्रीकृष्‍ण भी उस पर्वत के मूल भाग में प्रस्‍तर निर्मित ऊँचे खम्‍भे के समान खड़े हो गये। उन्‍होंने उस पहाड़ को अपने प्रिय अतिथि की भाँति एक हाथ से पकड़ रखा था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शत्रु राजा द्वारा आक्रांत देश के लोग रथ, शकट आदि वाहनों पर आरूढ़ होकर जब पलायन करने लगते हैं, उस समय उन्हें चक्रारूढ़ कहा जाता है; उसी प्रकार इन्द्र से पीड़ित पर्वत भगवान श्रीकृष्ण के हाथरूपी चक्र पर आरूढ़ हुआ दिखायी देता था।

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