हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद'आपने पूर्वकाल में जो कुछ दिखाया है, संसार में उसी को देवता लोग देखते हैं। आपने पहले जिसकी चर्चा नहीं की है, उसका अनुसंधान कौन कर सकता है? जगत में जो कुछ जानने योग्य है, उसका आपने प्रतिपादन कर दिया है। एक मात्र आपको जो तत्त्व ज्ञात है, उसे देवता भी नहीं जानते। आपका जो सहज, आकाश में भी व्यापक एवं स्वयम्भू रूप है, उस (विशुद्ध सनातन एवं निर्गुण-निराकार रूप) को देवता भी देख या समझ नहीं पाते हैं। भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये आप जो सगुण-साकार रूप से अवतार ग्रहण करते हैं, उसी की देवता लोग पूजा एवं आराधना करते हैं। देवताओं ने भी आपका अन्त नहीं देखा है, इसलिये आप अनन्त माने गये हैं। आप ही सूक्ष्म, महान और एक हैं। सूक्ष्म बुद्धि- इन्द्रियादि के द्वारा भी आपको जानना या पाना अत्यन्त कठिन है। आप ही इस जगत के आधार स्तम्भ हैं। आप पर प्रतिष्ठित होकर ही यह सनातन पृथ्वी अविचल भाव से सम्पूर्ण जगत को धारण करती है और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का स्थान बनती है। चारों समुद्र आपके स्वरूप हैं। आप चारों वर्णों के विभाग को जानने वाले हैं। चारों युगों में लोकों के चातुर्होत्र यज्ञ का जो फल है, उसका उपभोग करने वाले भी आप ही हैं। जैसे मैं समस्त लोकों का अन्तर्यामी आत्मा हूँ, वैसे ही आप भी हैं, यही मेरा मत है। हम दोनों ही एक शरीर वाले हैं, केवल जगत के हित के लिये दो रूपों में प्रकट हुए हैं। मैं सनातन विष्णु हूँ और आप पुरातन शेष हैं; हमारा चिन्मय शरीर मात्र ही ( विष्णु या अनन्त रूप से ) इस जड़-चेतनमय द्विविध जगत को धारण करता है। जो मैं हूँ, वह आप ही हैं। जो आप हैं, वह सनातन पुरुष मैं ही हूँ। हम दोनों एक ही आत्मा हैं, किंतु इस समय दो महाबली स्वरूपों में प्रकट हुए हैं। देव! आप किंकर्तव्य विमूढ़ की भाँति क्यों चुप बैठे हैं? बलपूर्वक इस दानव को मार डालिये। अपने वज्रतुल्य मुक्के से इस देवद्रोही के मस्तक पर प्रहार कीजिये।' वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार पुरातन रहस्य का स्मरण दिलाया, तब रोहिणीनन्दन बलराम त्रिलोकी के भीतर व्याप्त हुए अनन्त बल से परिपूर्ण हो गये। तब उन महाबाहु वीर ने दुराचारी प्रलम्बासुर के मस्तक पर अपनी बँधी हुई वज्रतुल्य मुष्टिका से प्रहार किया। इससे उसकी खोपड़ी उड़ गयी और शेष मस्तक उसके धड़ में ही धँस गया। फिर वह घायल हुआ दानवराज पृथ्वी पर घुटने टेककर गिर पड़ा और प्राणहीन होकर सदा के लिये सो गया। जैसे आकाश में स्थित हुए मेघ की घटा जब छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है, उस समय उसका जैसा रूप दिखायी देता है, पृथ्वी पर टूक-टूक होकर बिखरे हुए प्रलम्बासुर का रूप भी वैसा ही दृष्टिगोचर हुआ। कटे-फटे मस्तक वाले उस असुर के शरीर से खून की धारा बह चली, मानो पर्वत के शिखर से अधिक गेरू मिला हुआ जल प्रवाहित हो रहा हो। इस प्रकार प्रलम्बासुर को मारकर अपने बल को पुन: समेट लेने के बाद प्रतापी रोहिणीकुमार बलराम ने श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया। उस समय उस दैत्य के मारे जाने पर श्रीकृष्ण गोपगण तथा आकाश में खड़े हुए देवता विजयसूचक आशीर्वाद देते हुए महाबली बलराम जी की स्तुति करने लगे। अनायास ही महान कर्म करने वाले इस बालक ने ऐसे महान दैत्य को बलपूर्वक मार गिराया इस प्रकार देवताओं की कही हुई आकाशवाणी बारम्बार प्रकट होने लगी। उस समय आकाश में खड़े हुए देवताओं ने उनका नाम बलदेव रख दिया। तभी से भूतल के मनुष्य बलदेव जी के बल को जानने लगे। जो देवताओं के लिये भी दुर्जय था, उस प्रलम्ब नामक दैत्य के मारे जाने पर बलराम जी को उनके पराक्रम के अनुसार वह (बलदेव) नाम प्राप्त हुआ था। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णुपर्व में बाललीला के प्रसंग में प्रलम्बासुर का वध विषयक चौदहवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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