हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 124 श्लोक 34-56

Prev.png

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्विशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 34-56 का हिन्दी अनुवाद

उल्का बाणासुर की सेना के पुच्छ भाग को आवृत करके स्थित हुई थी। वायु प्रचण्ड गति से बह रही थी और तारे व्याकुलता को प्राप्त हो रहे थे। औषधियाँ निस्तेज हो गयीं और आकाशचारी प्राणी आकाश में विचरण नहीं करते थे। इसी बीच में समस्त देवताओं से घिरे हुए ब्रह्मा जी त्रिपुरनाशक रुद्र को युद्ध के लिये उद्यत जानकर वहाँ आये। गन्धर्व, अप्सरा, यक्ष, विद्याधर, सिद्ध और चारणों के समुदाय भी वह युद्ध देखने के लिये आकाश में खड़े हो गये। इसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने रुद्रदेव पर पार्जन्यास्त्र का प्रहार किया। वह अस्त्र प्रज्वलित होकर उसी ओर चला, जहाँ रुद्रदेव रथ पर विराजमान थे। फिर तो जहाँ भगवान शंकर का रथ खड़ा था, वहाँ सभी दिशाओं से झुकी हुई गाँठ वाले लाखों बाण गिरने लगे। तब रोष में भरे हुए अस्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ रुद्रदेव ने वहाँ महारौद्र आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया। वह अद्भुत-सा प्रतीत हुआ। उससे उन चारों के शरीर सब ओर से क्षत-विक्षत हो गये। वे बाणों से आच्छादित हो आग से जलते हुए अदृश्य हो गये। यह देख सभी असुर प्रवर वीर वहाँ सिंहनाद करने लगे।

उन्होंने यह समझ लिया था कि श्रीकृष्ण आग्नेयास्त्र से मारे गये। तदनन्तर युद्ध स्थान में उस अस्त्र की चोट सहकर अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ प्रतापी वासुदेव ने वारुणास्त्र उठाया। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण द्वारा अत्यन्त तेजस्वी वारुणास्त्र का प्रयोग होने पर उसके तेज से भगवान शंकर का आग्नेयास्त्र शान्त हो गया। उस युद्धस्थल में भगवान वासुदेव द्वारा उस आग्नेयास्त्र के प्रतिहत हो जाने पर भगवान शिव ने पैशाच, राक्षस, रौद्र तथा आंगिरस नामक चार अस्त्र छोड़े, जो प्रलयाग्नि के समान तेजस्वी थे। तब भगवान वासुदेव ने उक्त चारों अस्त्रों का निवारण करने के लिये क्रमश: वायव्यास्त्र, सावित्रास्त्र, ऐन्द्रास्त्र तथा मोहनास्त्र का प्रयोग किया। उन चारों अस्त्रों से उनके चारों अस्त्रों का तत्काल निवारण करके लक्ष्मीपति श्रीकृष्ण ने वैष्णवास्त्र का प्रयोग किया जो मुँह बाये हुए काल के समान प्रतीत होता था।

वैष्णवास्त्र का प्रयोग होने पर सभी असुरशिरोमणि वीर भूत, यक्षगण एवं बाण की सरी सेना- ये सभी भय और मोह से व्याकुल हो सम्पूर्ण दिशाओं की ओर भाग गये। जिसमें प्रथमगणों की अधिकता थी, उस सेना के भी पलायन कर जाने पर महान असुर बाण युद्ध के लिये उत्सुक हो बड़ी उतावली के साथ निकला। जैसे वज्रधारी इन्द्र श्रेष्ठ देवताओं से घिरे होते हैं, उसी प्रकार वह भयंकर अस्त्र-शस्त्र वाले महाबली एवं वीर महारथी घोर दैत्यों से घिरा हुआ था। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय ब्राह्मण लोग जप, मंत्र और औषधियों द्वारा महामनस्वी बाणासुर के लिये स्वस्तिवाचन कर रहे थे और बलिकुमार बाण उन ब्राह्मणों के लिये बहुत-से वस्त्र, शुभलक्षणा गौएँ, फल, फूल तथा स्वर्णमुद्राएँ देता हुआ धनाध्यक्ष कुबेर के समान शोभा पाता था। उसके विशाल रथ में सहस्रों सूर्यों के चिह्न बने थे, बहुत-सी छोटी-छोटी घंटियाँ लगीं थीं। वह बहुमूल्य सुवर्ण तथा रत्नों से सुसज्जित होकर विचित्र शोभा धारण करता था। उसमें सहस्रों चन्द्रमा तथा दस हजार तारों के चिह्न बने थे। वह महान रथ अग्‍न‍ि के समान प्रकाशित हो रहा था। दानव कुम्भाण्ड ने उस रथ की रास अपने हाथ में ले रखी थी। उस पर विशाल ध्वजा फहरा रही थी और उस पर बैठे हुए बाणासुर ने हाथ में धनुष ले रखा था।

वह उन यदुपुंगव वीरों का संहार कर डालने के लिये उद्यत हो अत्यन्त भयंकर रूप धारण किये हुए था, क्रोध में भरा था और वीर रथियों के समुदाय से घिरा हुआ था। वह दैत्य सागर उन यादव वीरों की ओर बढ़ चला ठीक उसी तरह, जैसे वायु के वेग से बढ़ा हुआ उत्ताल तरंगों से व्याप्त महासागर समस्त लोकों का विनाश करने के लिये अग्रसर हो रहा हो। लोगों के मन में त्रास उत्पन्न करने वाले शरीरों के द्वारा भयंकर प्रतीत होने वाली बहुत-सी सेनाएँ उसके आगे-आगे चल रही थीं। राजन! विशाल रथों और उठे हुए धनुषों से युक्त वे सेनाएँ पर्वत सहित वनों के समान प्रतीत होती थीं। अत्यन्त अद्भुत रूप वाला बाणासुर वह युद्ध देखने के लिये समुद्र के निकटवर्ती वासस्थान से निकल कर चला।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में भगवान रुद्र और श्रीकृष्ण का युद्ध विषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः