हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 116 श्लोक 60-76

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षोडशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 60-76 का हिन्दी अनुवाद


तदनन्तर इन्द्र के वज्र के आघात से पीड़ित हो पृथ्वी काँपने लगी। भूमि में छिपा हुआ बिलाव आर्तनाद एवं गर्जना करने लगा। जो देवताओं के भी देवता हैं, वे इन्द्र शोणितपुर में सब ओर बहुत रक्त की वर्षा करने लगे। आकाश से सूर्यमण्डल का मर्दन करके बहुत बड़ी उल्का धरती पर गिरी। अपने पक्ष के देवताओं से प्रेरित हुए सूर्यदेव भरणी नामक नक्षत्र को पीड़ा देने लगे। चैत्यवृक्षों पर सहसा शोणित की सैकड़ों-हजारों धाराएँ गिरने लगीं, जो बड़ी भयंकर प्रतीत होती थीं। आकाश से बारम्बार तारे टूटकर गिरने लगे। प्रजानाथ! राहु ने बिना पर्व के ही सूर्य को ग्रस लिया। वह लोकविनाशक समय प्राप्त होने पर भारी गड़गड़ाहट के साथ वज्रपात होने लगा। धूमकेतु दक्षिण दिशा में आकर स्थित हो गया। निरन्तर अविच्छिन्न भाव से अत्यन्त दारुण वायु चलने लगी। सूर्य पर तीन रंग के घेरे थे, किंतु कण्ठ भाग में काले रंग का घेरा था। उसमें सूर्य की कान्ति विद्युत के समान प्रतीत होती थी। उन्होंने अपनी उस दीप्ति से संध्याकाल की लाली को ढक दिया। मंगल वक्रगति से कृत्तिका में आकर स्थित हो गये, जो भय की सूचना दे रहे थे।

वे सब प्रकार से बाणासुर के जन्म नक्षत्र रोहिणी की भर्त्सना-सी कर रहे थे। बहुत-सी शाखाओं से युक्त चैत्यवृक्ष, जो महामनस्वी दानवों की समस्त कन्याओं द्वारा पूजित होता था, सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस प्रकार भाँति-भाँति के उत्पातों को देखता हुआ बल के मद से उन्मत्त बाणासुर किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाता था। परंतु बाणासुर के विद्वान मंत्री तत्त्वदर्शी कुम्भाण्ड नाना प्रकार के दुष्परिणामों का वर्णन करते हुए अचेत-से हो गये। वे बोले- 'असुरराज! यहाँ बहुत-से उत्पात दिखायी देते हैं, जो शुभ परिणाम के सूचक नही हैं। वे आपके राज्य का विनाश करने में सहायक होंगे, इसमें संदेह नहीं है। पृथ्वीनाथ! आपकी दुर्नीति से हम तथा दूसरे मंत्री और आपके अनुगामी सेवक- ये सब-के-सब शीघ्र ही नष्ट हो जायँगें।

आपके अपने ही दर्प से जिस तरह पूर्वोक्त चैत्यवृक्ष का जो अपनी ऊँचाई से इन्द्रध्वज को छू लेता था, तपन हो गया, उसी प्रकार बल की आकांक्षा रखकर गर्जना करने वाले आप बाणासुर का भी अपने ही मोहवश अभिमान से पतन हो जायगा। देवाधिदेव महादेवजी के प्रसाद से जिन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली, उन्हीं असुरराज का अभिमानवश विनाश दिखायी देता है, तभी तो आप युद्ध की अभिलाषा लेकर गर्जना करने लगे हैं। परंतु बाणासुर को इसकी परवाह नहीं थी, वह उत्तम पराक्रमी असुर प्रसन्नचित होकर दैत्यों और दानवों की स्त्रियों के साथ उत्तम मधुपान करने लगा। मंत्री कुम्भाण्ड उस समय चिन्तित होकर राजभवन को चले गये तथा भिन्न-भिन्न उत्पातों को देखकर तात्त्विक अर्थ का चिन्तर करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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