हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 10 श्लोक 21-44

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 21-44 का हिन्दी अनुवाद

अत्‍यन्‍त वर्षा से भ्रान्‍त हुए जंगली हाथी सूँड़ और मुँह को ऊपर उठाये मेघ की गर्जना का अनुकरण करते (गर्जते) थे। उस समय वे पृथ्‍वी पर उतरे हुए मूर्तिमान मेघ के समान जान पड़ते थे। वर्षा-ऋतु आ गयी और आकाश में बादल घिर आये; यह देखकर रोहिणीनन्‍दन बलराम जी ने श्रीकृष्‍ण से यह सामयिक बात कही- ‘श्रीकृष्‍ण! आकाश में उन ऊँचे उठे हुए काले बादलों को तो देखो, जो वक पंक्तिरूपी उज्‍ज्‍वल हारों से विभूषित हैं। वे तुम्‍हारी अंग कान्ति चुराये लेते हैं। यह तुम्‍हारे नींद लेने का समय है।[1] काले मेघों के कारण आकाश तुम्‍हारे अंगों के समान श्‍याम वर्ण का दिखाई देता है तथा वर्षा-ऋतु में चन्‍द्रमा भी तुम्‍हारी तरह अज्ञातवास कर रहे हैं। जो काले मेघों के छा जाने से श्‍याम दिखाई देता है तथा जिसकी आभा नीलकमल दल के समान हो गयी है, वह आकाश दुर्दिन (वर्षा का समय) आने पर स्‍वयं भी दुर्दिन (मेघाछन्‍न दिवस) सा प्रतीत होता है।

श्रीकृष्‍ण! देखो, जल से भरकर परस्‍पर गुँथे हुए इन काले बादलों से गौओं की वृद्धि करने वाला गोवर्धन पर्वत कैसा रमणीय प्रतीत होता है! ये कृष्‍णमृग चारों ओर जल गिरने से मदमत्त हो उठे हैं और आनन्‍द मग्न होकर काननों में विचरते हुए शोभा पा रहे हैं। कमलनयन! जल से अभिषिक्‍त होकर हर्षोल्‍लास में भरे हुए ये कोमल हरित तृण अपने पत्तों से पृथ्‍वी को ढकते जा रहे हैं। ‘मेघों के आने पर जल के झरने बहाने वाले पर्वतों की, वनों की तथा सस्‍य (हरी-भरी खेती) से सम्‍पन्‍न खेतों की लक्ष्‍मी (शोभा) एक-सी हो रही है। कहीं न्‍यून या अधिक नहीं है (अथवा इन तीनों की शोभा इनसे पृथक नहीं होती है)। दामोदर! शीघ्रगामी वायु से प्रेरित हो उठे हुए तथा परदेश में रहने वाले पुरुषों को घर आने के लिये उत्‍सुक बनाने वाले ये बादल प्रचण्‍ड गर्जना करते हुए अपनी प्रगल्‍भता का परिचय देते हैं। त्रिविक्रम रूप धारण करने वाले हरे! बाण और प्रत्‍यंचा से रहित तिरंगे इन्‍द्रधनुष से तुम्‍हारे मध्‍यम पद (अन्‍तरिक्ष) का श्रृंगार-सा किया गया है। श्रावण मास में आकाश के नेत्रस्‍वरूप ये अंशुमाली सूर्य प्रभाहीन से होकर आकाश में विचरते हुए अधिक शोभा नहीं पा रहे हैं तथा बादलों से आच्‍छन्‍न होने के कारण इनकी तापदायिनी किरणें शीतल हो गयी हैं। आकाश में फैलकर समुद्र के जल प्रवाह से प्रतीत होने वाले इन बादलों ने अविच्छिन्न रूप से जल की धाराएं गिराकर आकाश और पृथ्‍वी को मानों सदा के लिये एक-दूसरे के साथ जोड़ दिया है। पृथ्‍वी पर अत्‍यन्‍त वर्षा होने के कारण नीप, अर्जुन और कदम्‍बों की गन्‍ध से वासित हुई कोलाहल-युक्‍त वायु कामियों का कामोद्दीपन करती हुई बह रही है।

बड़े जोर से वर्षा आरम्‍भ हो गयी है। बड़े-बड़े मेघ बरसने के लिये नीचे को झुक आये हैं, जिनसे यह आकाश अथाह अनन्‍त महासागर से संयुक्‍त-सा प्रतीत होता है। जल की धाराओं का निर्मल नाराच, विद्युद्रूपी कवच तथा इन्‍द्रधनुषरूपी आयुध को धारण किये हुए यह आकाश युद्ध के लिये सुसज्जित हुआ-सा जान पड़ता है। सुमुख श्रीकृष्‍ण! पर्वतों के शिखर तथा वनों और वहाँ के वृक्षों की शिखाएं घने बादलों से आच्‍छादित होकर कैसी शोभा पा रही हैं। अपनी सूँडों से जल छोड़ने वाले गजसमूहों की भाँति इन काले घने बादलों से आच्‍छादित हुआ आकाश रंग-रूप में समुद्र के समान हो गया है। समुद्र के हिलोरे लेने से उत्‍पन्‍न हो चंचल घासों को कम्पित करती हुई जल बिन्‍दुओं सहित उद्दम गति से चलने वाली शीतल एवं कर्कश वायु बह रही है। जिनमें चन्‍द्रमा भी सोये हुए के समान अदृश्‍य हो गये हैं, बादलों ने पानी बरसाना आरम्‍भ कर दिया है और आकाश के सूर्य भी डूब चुके हैं, ऐसी बरसाती रातों में दसों दशाओं का कुछ पता नहीं चलता है। ‘सब ओर वायु से मेघों द्वारा उपलक्षित आकाश चेतन-सा प्रतीत होता है, किसानों को न दिन का पता चलता है न रात का। श्रीकृष्‍ण! देखो, घासरूपी दोष रहित और मेघों के बरसाये हुए जल से विभूषित हुआ वृन्दावन चैत्ररथ वन के समान शोभा पा रहा है।' इस प्रकार श्रीकृष्‍ण के बड़े भ्राता महाबली श्रीमान बलराम वर्षाकाल के गुणों का वर्णन करते हुए ही उनके साथ व्रज में चले गये। एक-दूसरे के साथ खेलते और घूमते हुए दोनों भाई श्रीकृष्‍ण और संकर्षण उस समय के भाई-बन्‍धुओं के साथ उस विशाल वन में विचरने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में वर्षा का वर्णनविषयक दसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्षा के चार महीनों में भगवान विष्‍णु शयन करते हैं- यह पुराण प्रसिद्ध बात है तथा इस हरिवंश में भी इसकी चर्चा आ चुकी है।

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