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[[चित्र:Next.png|link=हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21]] | [[चित्र:Next.png|link=हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-21]] | ||
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02:51, 7 अप्रॅल 2016 का अवतरण
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तदश अध्याय: श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद
वहां भक्ष्य पदार्थों के सैकड़ों ढ़ेर लगाये गये थे। नाना प्रकार के गन्ध, माल्य तथा भांति-भांति के धूपों से वह यज्ञ सुशोभित होता था। अग्नि के समीप जो आज्य स्थाली और चरू स्थाली आदि रखी गयी थी, वे उस यज्ञ का विधान आरम्भ होते ही आग पर चढ़ा दी गयी। ब्राह्मणों सहित गोपों ने किसी शुभ तिथि को उस यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया था। यज्ञ के अन्त मे श्रीकृष्ण स्वयं ही माया से पर्वत के अधिष्ठाता देवता बनकर उस अन्न, दूध, दही और फलों के गूदों को भोग लगाने लगे। उस यज्ञ में श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अन्न-पान से तृप्त और दक्षिणा से संतुष्ट किया गया था। उन सब के मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे सुखपूर्वक स्वस्ति वाचन करके प्रसन्न चित्त होकर उठे थे। यज्ञान्त स्नान के समय गिरिदेव के रूप में प्रकट हुए श्रीकृष्ण अपने को अर्पित किये गये भोज्य पदार्थों को खाकर और इच्छानुसार दूध पीकर बोले-‘मैं पूर्णत: तृप्त हो गया।’ ऐसा कहकर वे उस दिव्य रूप के द्वारा जोर-जोर से हँसने लगे। दिव्य माला और अनुलेप धारण किये उन पर्वताकार देवता को पर्वत के शिखर पर खड़ा देख सब लोगों ने उन्हें प्रधानत: श्रीकृष्ण ही समझकर उनकी शरण ली। प्रभावशाली भगवान श्रीकृष्ण ने भी उसी रूप से अपने को छिपाये रखकर वहां एकत्र हुए गोपों के साथ नतमस्तक हो स्वयं ही अपने-आपको प्रणाम किया। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णुपर्व में गिरियज्ञ का अनुष्ठान विषयक सत्रहवां अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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