पंचदश (15) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व)
महाभारत: स्त्रीपर्व: पंचदश अध्याय: श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद
नरेश्वर! विशाल नेत्रों वाली कुन्ती ने शोक से कातर हो रोती हुई द्रुपदकुमारी को उठाकर धीरज बंधाया और उसके साथ ही वे स्वयं भी अत्यन्त आर्त होकर शोकाकुल गान्धारी के पास गयीं। उस समय उनके पुत्र पाण्डव भी उनके पीछे-पीछे गये। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! गान्धारी ने बहू द्रौपदी और यशस्विनी कुन्ती से कहा- बेटी! इस प्रकार शोक से व्याकुल न होओ। देखो, मैं भी तो दुख में डूबी हुई हूँ। मैं समझती हूँ, समय के उलट-फेर से प्रेरित होकर यह सम्पूर्ण जगत का विनाश हुआ है, जो स्वभाव से ही रोमान्चकारी है। यह काण्ड अवश्यम्भावी था, इसीलिये प्राप्त हुआ है। जब संधि कराने के विषय में श्रीकृष्ण की अनुनय-विनय सफल नहीं हुई, उस समय परम बुद्धिमान विदुर जी ने जो महत्त्वपूर्ण बात कही थी, उसी के अनुसार यह सब कुछ सामने आया है। जब यह विनाश किसी तरह टल नहीं सकता था, विशेषतः जब सब कुछ होकर समाप्त हो गया, तो अब तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। वे सभी वीर संग्राम में मारे गये हैं, अतः शोक करने के योग्य नहीं है। आज जैसी मैं हूं, वैसी ही तुम भी हो। हम दोनों को कौन धीरज बंधायेगा? मेरे ही अपराध से इस श्रेष्ठ कुल का संहार हुआ है। इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्वके अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में विषयक पंद्रहवॉं अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|