महाभारत सभा पर्व अध्याय 74 भाग 3

चतु:सप्ततितम (74) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: चतु:सप्ततितम अध्याय: भाग 3 का हिन्दी अनुवाद


तब इन्द्र ने श्‍वेतवाहन अर्जुन को कुचल डालने की इच्‍छा से वृक्षों सहित अंगद नामक पर्वत (जो मन्दराचल का एक शिखर है) को दोनों हाथों से उठाकर उनके ऊपर छोड़ दिया। यह देख अर्जुन ने अग्नि के समान प्रज्‍वलित और सीधे लक्ष्‍य तक पहुँचने वाले सहस्रों वेगशाली बाणों द्वारा उस पर्वतराज को खण्‍ड-खण्‍ड कर दिया। साथ ही पार्थ ने उस युद्ध में बलपूर्वक बाण मारकर इन्‍द्र को स्‍तब्‍ध कर दिया। महाराज! तदनन्‍तर तेज और बल से सम्‍पन्‍न वीर धनंजय को युद्ध में जीतना असम्‍भव जानकर इन्‍द्र को अपने पुत्र के पराक्रम से वहाँ बड़ी प्रसन्‍नता प्राप्‍त हुई। राजन्! उस समय वहाँ स्‍वर्ग का कोई भी महायशस्‍वी वीर, चाहे साक्षात् प्रजापति ही क्‍यों न हों, ऐसा नहीं था, जो अर्जुन को जीतने में समर्थ हो सके।

तदनन्‍तर महातेजस्‍वी अर्जुन अपने बाणों से यक्ष, राक्षस और नागों को मारकर उन्‍हें लगातार प्रज्‍वलित अग्नि में गिराने लगे। स्‍वर्गवासी देवताओं सहित इन्‍द्र को अर्जुन ने युद्ध से विरत कर दिया, यह देख उस समय कोई भी उनकी ओर दृष्टिपात नहीं कर पाते थे। भारत! जैसे पूर्वकाल में गरुड़ ने अमृत के लिये देवताओं को जीत लिया था, उसी प्रकार कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने भी देवताओं को जीतकर खाण्‍डवचन के द्वारा अग्निदेव को तृप्‍त किया। इस प्रकार पार्थ ने अपने पराक्रम से अग्निदेव को तृप्‍त करके उनसे रथ, ध्‍वजा, अश्‍व, दिव्‍यास्त्र, उत्तम धनुष गाण्डीव तथा अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर प्राप्‍त किये। इनके सिवा अनुपम यश और मयासुर से एक सभावचन भी उन्‍हें प्राप्‍त हुआ। राजेन्‍द्र! अर्जुन के पराक्रम की कथा अभी और सुनिये। उन्‍होंने उत्तर दिशा में जाकर नगरों और पर्वतों सहित जम्‍बूद्वीप के नौ वर्षों पर विजय पायी। भरतश्रेष्‍ठ! उन्‍होंने समस्‍त जम्‍बूद्वीप को वश में करके सब राजओं को बलपूर्वक जीत लिया और सब कर लगाकर उनसे सब प्रकार के रत्‍नों की भेट ले वे पुन: अपनी पुरी को लौट आये। भारत! तदनन्‍तर अर्जुन ने अपने बड़े भाई महात्‍मा धर्मराज युधिष्ठिर से क्रतु श्रेष्ठ राजसूर्य का अनुष्‍ठान करवाया।

पिता जी! इस प्रकार अर्जुन ने पूर्वकाल में ये तथा और भी बहुत-से पराक्रम कर दिखाये हैं। संसार में कहीं कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो बल और पराक्रम में अर्जुन की समानता कर सके। देवता, दानव, यक्ष, पिशाच, नाग, राक्षस एवं भीष्‍म, द्रोण आदि समस्‍त कौरव महारथी, भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण नरेश तथा अन्‍य धनुर्धर वीर- ये तथा अन्‍य बहुत-से शूरवीर युद्ध भूमि में अकेले अर्जुन को चारों ओर से घेरकर पूरी सावधानी के साथ खड़े हो जायँ, तो भी उनका सामना नहीं कर सकते। कुरुश्रेष्‍ठ! मैं साधु शिरोमणि अर्जुन के विषय में नित्‍य-निरन्‍तर चिन्‍तन करते हुए उनके भय से अत्‍यन्‍त उद्विग्र हो जाता हूँ। पिता जी! मुझे प्रत्‍येक घर में सदा हाथ में पाश लिये यमराज की भाँति गाण्‍डीव धनुष पर बाण चढ़ाये अर्जुन दिखायी देते हैं। भारत! मैं इतना डर गया हूँ कि मुझे सहस्रों अर्जुन दृष्टिगोचर होते हैं। यह सारा नगर मुझे अर्जुनरूप ही प्रतीत होता है। भारत! मैं एकान्‍त में अर्जुन को ही देखता हूँ। स्‍वप्न में भी अर्जुन को देखकर मैं अचेत और उद्भ्रान्‍त हो उठता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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