महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 20

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 20 का हिन्दी अनुवाद


जब वे गीत गाते, उस समय भगवान श्रीकृष्ण पत्तों के बाजों के बीच-बीच में वेणु, तुम्बी और वीणा बजाया करते थे। इस प्रकार विभिन्न लीलाओं द्वारा श्रीकृष्ण गोपबालकों के साथ खेलते थे। भतरनन्दन! उस समय बालक श्रीकृष्ण ने सम्पूर्ण भूतों के देखते-देखते लोकहित के अनेक कार्य किये। वृन्दावन में कदम्बवन के पास जो हृद (कुण्ड) था, उसमें प्रवेश करके उन्होंने कालिय नाग के मस्तक पर नृत्यक्रीड़ा की थी। फिर सब लोगों के सामने ही कालिय नाग को अन्यत्र जाने का आदेश देकर वे बलदेव जी के साथ वन में इधर-उधर विचरण करने लगे। राजन्! तालवन में धेनुक नामक भयंकर दैत्य निवास करता था, जो गधे का रूप धारण करके रहता था। उस समय वह बलदेव जी के हाथ से मारा गया। कुन्तीनन्दन! तदनन्तर किसी समय सुन्दर मुख वाले बलराम और श्रीकृष्ण अपने बड़े हुए गोधन को चराने के लिये वन में गये। वहाँ वन की शोभा निहारते हुए वे दोनों भाई घूमते, खेलते, गीत गाते और विभिन्न वृक्षों की खोज करते हुए बड़े प्रसन्न होते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों अजेय वीर वहाँ गौओं और बछड़ों को नाम ले-लेेकर बुलाते और लोक प्रचलित बालोचित क्रीड़ाएँ करते रहते थे। वे दोनों देववन्दित देवता थे तो भी मानवी दीक्षा ग्रहण करने के कारण मानव जाति के अनुरूप गणों वाली क्रीड़ाएँ करते हुए वन में विचरते थे।

तत्पश्चात महातेजस्वी श्रीकृष्ण गौओं के व्रज में जाकर गोपबालकों द्वारा किये जाने वाले गिरि यज्ञ में सम्मिलित हो वहाँ सर्वभूत स्रष्टा ईश्वर के रूप में अपने को प्रकट करके (गिरिराज के लिये समर्पित) खीर को स्वयं ही खाने लगे। उन्हें देखकर सब गोप भगवद्बुद्धि से श्रीकृष्ण के उस स्वरूप की ही पूजा करने लगे। गोपालों द्वारा पूजित श्रीकृष्ण ने दिव्य रूप धारण कर लिया। शत्रुमर्दन युधिष्ठिर! (जब इन्द्र वर्षा कर रहे थे, उस समय) बालक वासुदेव ने गौओं की रक्षा के लिये एक सप्ताह तक गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ पर उठा रखा था। भरतनन्दन! उस समय श्रीकृष्ण ने खेल खेल में ही अत्यन्त दुष्कर कर्म कर डाला, जो सब लोगों के लिय अत्यन्त अद्भुत सा था। देवाधिदेव इन्द्र ने भूतल पर जाकर जब श्रीकृष्ण को (गोवर्धन धारण किये) देखा, तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने श्रीकृष्ण को ‘गोविन्द’ नाम देकर उनका (‘गवेन्द्र’ पद पर) अभिषेक किया। देवराज इन्द्र गोविन्द को हृदय से लगाकर उनकी अनुमति ले स्वर्ग लोक को चले गये।

तदनन्तर श्रीकृष्ण ने पशुओं के हित की कामना से वृषभरूपधारी अरिष्ट नामक दैत्य को वेगपूर्वक मार गिराया। राजन्! व्रज में केशी नाम का एक दैत्य रहता था, जिसका शरीर घोड़े के समान था। उसमें दस हजार हाथियों का बल था। कुन्तीनन्दन! उस अश्व रूपधारी दैत्य को भोजकुलोत्पन्न कंस ने भेजा था। वृन्दावन में आने पर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने उसे भी अरिष्टासुर की भाँति मार दिया। कंस के दरबार में एक आन्ध्रदेशीय मल्ल था, जिसका नाम था चाणूर। वह एक महान् असुर था। श्रीकृष्ण ने उसे भी मार डाला। भरतनन्दन! (कंस का भाई) शत्रुनाशक सुनामा कंस की सारी सेना का अगुआ सेनापति था। गोविन्द अभी बालक थे, तो भी उन्होंने सुनामा को मार दिया। भारत! (दंगल देखने के लिये जुटे हुए) जन समाज में युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए मुष्टिक नामक पहलवान को बलराम जी ने अखाड़े में ही मार दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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