महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 65 श्लोक 17-35

पंचषष्टितम (65) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचषष्टितम अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्र ने कहा-राजन्! जो लोग दस्यु-वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हैं, उन सबको अपने माता-पिता, आचार्य, गुरु तथा आश्रमवासी मुनियों की सेवा करनी चाहिये। भूमिपालों की सेवा करना भी समस्त दस्युओं का कर्तव्य है। वेदोक्त धर्म-कर्मों का अनुष्ठान भी उनके लिये शास्त्रविहित धर्म है। पितरों का श्राद्ध करना, कुआँ खुदवाना, जलक्षेत्र चलाना और लोगों के ठहरने के लिये धर्मशालाएँ बनवाना भी उनका कर्तव्य है। उन्हें यथा समय ब्राह्मणों को दान देते रहना चाहिये। अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोधशून्य बर्ताव, दूसरों की आजीविका तथा बँटवारे में मिली हुई पैतृक सम्पत्ति की रक्षा, स्त्री-पुत्रों का भरण-पोषण, बाहर-भीतर की शुद्धि रखना तथा द्रोहभावका त्याग करना-यह उन सबका धर्म है। कल्याण की इच्छा रखने वाले पुरुष को सब प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करके ब्राह्मणों को भरपूर दक्षिणा देनी चाहिये। सभी दस्युओं को अधिक खर्च वाला पाक यज्ञ करना और उसके लिये धन देना चाहिये।

निष्पाप नरेश! इस प्रकार प्रजापति ब्रह्मा ने सब मनुष्यों के कर्तव्य पहले ही निर्दिष्ट कर दिये हैं। उन दस्युओं को भी इनका यथावत् रूप से पालन करना चाहिये। मान्धाता बोले- भगवान! मनुष्य लोक में सभी वर्णों तथा चारों आश्रमों में भी डाकू और लुटेरे देखे जाते हैं, जो विभिन्न वेश-भूषाओं में अपने को छिपाये रखते हैं। इन्द्र बोले-निष्पाप नरेश! जब राजा की दुष्टता के कारण दण्डनीति नष्ट हो जाती है और राजधर्म तिरस्कृत हो जाता है, तब सभी प्राणी मोहवश कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक खो बैठते हैं। इस सत्ययुुग के समाप्त हो जाने पर नाना वेषधारी असंख्य भिक्षुक प्रकट हो जायेँगे और लोग आश्रमों के स्वरूप की विभिन्न मनमानी कल्पना करने लगेंगे। लोग काम और क्रोध से प्रेरित होकर कुमार्ग पर चलने लगेंगे। वे पुराणप्रोक्त प्राचीन धर्मों के पालन का जो उत्तम फल है, उस विषय की बात नहीं सुनेंगे। जब महामनस्वी राजालोग दण्डनीति के द्वारा पापी को पाप करने से रोकते रहते हैं, तब सत्स्वरूप् परमोत्कृष्ट सनातन धर्मका ह्रास नहीं होता है। जो मनुष्य सम्पूर्ण लोकों के गुरुस्वरूप् राजा का अपमान करता है, उसके किये दान, होम और श्राद्ध कभी सफल नहीं होते हैं।

राजा मनुष्यों का अधिपति, सनातन देवस्वरूप तथा धर्म की इच्छा रखने वाला होता है। देवता भी उसका अपमान नहीं करते हैं। भगवान प्रजापति ने जब इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की थी, उस समय लोगों को सत्कर्म में लगाने और दुष्कर्म से निवृत्त करने के लिये उन्होंने धर्मरक्षा के हेतु क्षात्रबल को प्रतिष्ठित करने की अभिलाषा की थी। जो पुरुष प्रवृत्ति धर्म की गति का अपनी बुद्धि से विचार करता है, वही मेरे लिये माननीय और पूजनीय है; क्योंकि उसी में क्षात्रधर्म प्रतिष्ठित है। भीष्मजी कहते हैं- राजन्! मान्धाता को इस प्रकार उपदेश देकर इन्द्ररूपधारी भगवान विष्णु मरूद्गणों के साथ अविनाशी एवं सनातन पनमपद विष्णुधाम को चले गये। निष्पाप नरेश्वर! इस प्रकार प्राचीनकाल में भगवान विष्णु ने ही राजधर्म को प्रचलित किया और सत्पुरुषों द्वारा वह भलीभाँति आचरण में लाया गया। ऐसी दशा में कौन ऐसा सचेत और बहुश्रुत विद्वान् होगा, जो क्षात्रधर्म की अवहेलना करेगा? अन्यायपूर्वक क्षत्रिय-धर्मकी अवहेलना करने से प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म भी उसी प्रकार बीच में ही नष्ट हो जाते हैं, जैसे अन्धा मनुष्य रास्ते में नष्ट हो जाता है। पुरुषसिंह! निष्पाप युधिष्ठिर! विधाता का यह आज्ञाचक्र (राजधर्म) आदि काल में प्रचलित हुआ और पूर्ववर्ती महापुरुषों का परम आश्रय बना रहा। तुम भी उसी पर चलो। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम इस क्षात्रधर्म के मार्ग पर चलने में पूर्णतः समर्थ हो।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मांनुशासनपर्वं में इन्द्र और मान्धाता का संवादविषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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