महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 29 श्लोक 70-86

एकोनत्रिंश (29) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनत्रिंश अध्याय: श्लोक 70-86 का हिन्दी अनुवाद


'सृंजय! वे पूर्वोंक्त चारों बातों में तुमसे बहुत बढे़-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से अधिक पुण्यात्मा थे, जब वे भी काल से न बच सके तो दूसरों के लिये क्या कहा जा सकता है? अतः तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो। सृंजय! महामना राजा दिलीप भी मरे थे, यह सुनने में आया है। उनके महान् कर्मों का आज भी ब्राह्मण लोग वर्णन करते हैं। एकाग्रचित्त हुए उन नरेश ने अपने उस महायज्ञ में रत्न और धन से परिपूर्ण इस सारी पृथ्वी का ब्राह्मणों के लिये दान कर दिया। यजमान दिलीप के प्रत्येक यज्ञ में पुरोहित जी सोने के बने हुए एक हजार हाथी दक्षिणा रूप में पाकर उन्हें अपने घर ले जाते थे। उनके यज्ञ में सोने का बना हुआ कान्तियुक्त बहुत बड़ा यूप शोभा पाता था। यज्ञ कर्म करते हुए इन्द्र आदि देवता सदा उसी यूप का आश्रय लेकर रहते थे। उनके उस सुवर्णमय यूप में जो सोने का चषाल (घेरा) बना था, उसके ऊपर छः हजार देवगन्धर्व नृत्य किया करते थे। वहाँ साक्षात् विश्वावसु बीच में बैठकर सात स्वरों के अनुसार बीणा बजाया करते थे। उस समय सब प्राणी यही समझते थे कि ये मेरे आगे बाजा बजा रहे हैं। राजा दिलीप के इस महान् कर्म का अनुसरण दूसरे राजा नहीं कर सके। उनके सुनहरे साज-बाज और सोने के आभूषणों से सजे हुए मतवाले हाथी रास्ते पर सोये रहते थे। सत्यवादी शतधन्वा महामनस्वी राजा दिलीप का जिन लोगों ने दर्शन किया था, उन्होंने भी स्वर्गलोग को जीत लिया।

महाराज दिलीप के भवन में वेदों के स्वाध्याय का गम्भीर घोष, शूरवीरों के धनुष की टंकार तथा 'दान दो’ की पुकार- ये तीन प्रकार के शब्द कभी बंद नहीं होते थे। सृंजय! वे राजा दिलीप चारों कल्याणकारी गुणों में तुमसे बढ़कर थे। तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी मर गये तो दूसरों की क्या बात है? अतः तुम्हें अपने मरे हुए पुत्र के लिये शोक नहीं करना चाहिये। सृंजय! जिन्हें मरुत्! नामक देवताओं ने गर्भावस्था में पिता के पार्श्व भाग को फाड़कर निकाला था, वे युवनाश्वर के मान्धाता भी मृत्यु के अधीन हो गये, यह हमारे सुनने में आया है। त्रिलोक विजयी श्रीमान् राजा मान्धाता पृषदाज्य (दधिमिश्रित घी जो पुत्रोत्पत्ति के लिये तैयार करके रखा गया था) से उत्पन्न हुए थे। वे अपने पिता महामना युवनाश्वर के पेट में ही पले थे। जब वे शिशु-अवस्था में पिता के पेट से पैदा हो उनकी गोद में सो रहे थे, उस समय उनका रूप देवताओं के बालकों के समान दिखायी देता था। उस अवस्था में उन्हें देखकर देवता आपस में बात करने लगे। यह मातृहीन बालक किसका दूध पीयेगा। यह सुनकर इन्द्र बोल उठे- "मां धाता-मेरा दूध पीयेगा।" जब इन्द्र ने इस प्रकार उसे पिलाना स्वीकार कर लिया, तब से उन्होंने ही उस बालक का नाम 'मान्धाता’ रख दिया। तदनन्तर उस महामनस्वी बालक युवनाश्वरकुमार की पुष्टि के लिये उसके मुख में इन्द्र के हाथ से दूध की धारा झरने लगी। इन्द्र के उस हाथ को पीता हुआ वह बालक एक ही दिन में सौ दिन के बराबर बढ़ गया। बारह दिनों में राजकुमार मान्धाता बारह वर्ष की अवस्था वाले बालक के समान हो गये।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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