चतुरशीत्यधिकद्विशततम (284) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: चतुरशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद
ऐसा कहकर माहयोगी दधीचि ने जब ध्यान लगाकर देखा, तब उन्हें भगवान शंकर और मंगलमयी वरदायिनी देवी पार्वती जी का दर्शन हुआ। उनके पास ही महात्मा नारद जी भी दिखायी दिये, इससे उनको बड़ा संतोष हुआ। योगवेत्ता दधीचि को यह निश्चय हो गया कि ये सब देवता एकमत हो गये हैं। इसीलिये इन्होंने महेश्वर को यहाँ निमन्त्रित नहीं किया है। यह बात ध्यान में आते ही दधीचि यज्ञशाला से अलग हो गये और दूर जाकर कहने लगे- 'सज्जनों! अपूजनीय पुरुष की पूजा करने से और पूजनीय महापुरुष की पूजा न करने से मनुष्य सदा ही नरहत्या के समान पाप का भागी होता है। मैंने पहले कभी झूठ नहीं कहा है और आगे भी कभी झूठ नहीं कहूँगा। इन देवताओं तथा ऋषियों के बीच मैं सच्ची बात कह रहा हूँ। भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करने वाले, सम्पूर्ण जीवों के रक्षक, स्वामी तथा सबके प्रभू हैं। तुम सब लोग देख लेना, वे इस यज्ञ में प्रधान भोक्ता के रूप में उपस्थित होंगे। दक्ष ने कहा- हाथों में शूल और मस्तक पर जटाजूट धारण करने वाले बहुत-से रुद्र हमारे यहाँ रहते हैं। वे ग्यारह हैं और ग्यारह स्थानों में निवास करते हैं। उनके सिवा दूसरे किसी महेश्वर को मैं नहीं जानता। दधीचि बोले- मैं जानता हूँ, आप सब लोगों का ही यह मिल-जुलकर किया हुआ निश्चय है। इसीलिये उन महादेव जी को निमन्त्रित नहीं किया गया है; परंतु मैं भगवान शंकर से बढ़कर दूसरे किसी देवता को नहीं देखता। यदि यह सत्य है तो प्रजापति दक्ष का यह विशाल यज्ञ निश्चय ही नष्ट हो जायेगा। दक्ष ने कहा- महर्षे! देखो, विधिपूर्वक मन्त्र से पवित्र की हुई यह हवि सुवर्ण के पात्र में रखी हुई है। यह यज्ञेश्वर श्री विष्णु को समर्पित है। भगवान विष्णु की कहीं समता नहीं है। मैं उन्हीं को हविष्य का यह भाग अर्पित करूँगा। ये भगवान विष्णु ही सर्वसमर्थ, व्यापक और यज्ञ भाग अर्पित करने के योग्य हैं। (दूसरी ओर कैलास पर्वत पर) पार्वती देवी (बहुत दुखी होकर) कह रही थीं- आह, मैं कौन-सा व्रत, दान या तप करूँ, जिसके प्रभाव से आज मेरे पतिदेव अचिन्त्य भगवान शंकर को यज्ञ का आधा अथवा तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो? क्षोभ में भरकर इस प्रकार बोलती हुई पत्नी की बात सुनकर भगवान शंकर हर्ष से खिल उठे और इस प्रकार बोले- 'देवि! कृशोदरांगि! तू मुझे नहीं जानती, मैं सम्पूर्ण यज्ञों का ईश्वर हूँ। मेरे विषय में किस प्रकार के वचन कहना चाहिये, यह भी तुम नहीं जानती। पर मैं सब कुछ जानता हूँ। विशाललोचने! जिनका चित्त एकाग्र नहीं है, वे ध्यानशून्य असाधु पुरुष मेरे स्वरूप को नहीं जानते। आज तुम्हारे इस मोह से इन्द्र आदि देवताओं सहित तीनों लोक सब ओर से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं। यज्ञ में प्रस्तोता लोग मेरी स्तुति करते हैं। सामगान करने वाले ब्राह्मण रथन्तर साम के रूप में मेरी महिमा का गान करते हैं। वेदवेत्ता विप्र मेरा ही यजन करते और ॠत्विज लोग यज्ञ में मुझे ही भाग अर्पित करते हैं'। देवी ने कहा- नाथ! अत्यन्त गँवार पुरुष भी क्यों न हो, प्राय: सभी स्त्रियों के बीच में अपनी प्रशंसा के गीत गाते और अपनी श्रेष्ठता पर गर्व करते हैं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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