त्र्यशीत्यधिकद्विशततम (283) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यशीत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 40-56 का हिन्दी अनुवाद
पुरुषप्रवर! उस समय उस आग से एक नाटा-सा पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसकी आँखे बहुत ही लाल थीं। दाढी और मूँछ के बाल भूरे रंग के थे। वह देखने में बड़ा डरावना जान पड़ता था ।[1] उसके केश ऊपर की ओर उठे हुए थे। उसके सारे अंग बाज और उल्लू के समान अतिशय रोमावलियों से भरे थे। शरीर का रंग काला और विकराल था। उसके वस्त्र लाल रंग के थे। उस महान शक्तिशाली पुरुष ने उस यज्ञ को उसी प्रकार दग्ध कर दिया, जैसे आग सूखे काठ या घास फूस के ढेर को जलाकर भस्म कर डालती है। तत्पश्चात् वह पुरुष सब ओर विचरने लगा और देवताओं तथा ऋषियों की ओर दौड़ा। उसे देखकर सब देवता भयभीत हो दसों दिशाओं में भाग गये। राजन्! भरतभूषण! प्रजानाथ! उस यज्ञ में विचरते हुए उस पुरुष के पैरों की धमक से यह पृथ्वी वड़े जोर-जोर से काँपने लगी। उस समय सारे जगत में हाहाकार मच गया। यह सब देखकर भगवान ब्रह्मा ने महादेव जी को जगत की यह दुर्दशा दिखाते हुए उनसे इस प्रकार कहा। ब्रह्माजी बोले- सर्वदेवेश्वर! प्रभो! अब आप अपने बढे हुए उस क्रोध को शान्त कीजिये। आज से सब देवता आपको भी यज्ञ का भाग दिया करेंगे। शत्रुओं को संताप देने वाले महादेव! ये सब देवता और ऋषि आपके क्रोध से संतप्त हो कर कहीं शान्ति नहीं पा रहे हैं। धर्मज्ञ देवेश्वर! आपके पसीने से जो यह पुरुष प्रकट हुआ है, इसका नाम होगा ज्वर। यह समस्त लोकों में विचरण करेगा। प्रभो! आपका तेजरूप यह ज्वर जब तक एक रूप में रहेगा, तब तक यह सारी पृथ्वी इसे धारण करने में समर्थ न हो सकेगी। अत: इसे अनेक रूपों में विभक्त कर दीजिये। जब ब्रह्माजी ने इस प्रकार कहा और यज्ञ में भाग मिलने की भी व्यवस्था हो गयी, तब महादेवजी अमित तेजस्वी भगवान ब्रह्मा से इस प्रकार बोले - 'तथास्तु' ऐसा ही हो। पिनाकारी शिव को उस समय बडी प्रसन्नता हुई और वे मुस्कराने लगे। जैसा कि ब्रह्माजी ने कहा था, उसके अनुसार उन्होंने यज्ञ में भाग प्राप्त कर लिया। वत्स युधिष्ठिर! उस समय समस्त धर्मों के ज्ञाता भगवान शिव ने सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति के लिये ज्वर को अनेक रूपों में बाँट दिया, उसे भी सुन लो। हाथियों के मस्तक में जो ताप या पीड़ा होती है, वही उनका ज्वर है। पर्वतों का ज्वर शिलाजीत के रूप में प्रकट होता है। सेवार को पानी का ज्वर समझना चाहिये। सर्पों का ज्वर केंचुल है। गाय-बैलों के खुरों में जो खोरक नाम वाला रोग होता है, वही उनका ज्वर है। पृथ्वी का ज्वर उस र के रूप में प्रकट होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! पशुओं की दृष्टि-शक्ति का जो अवरोध होता है, वह भी उनका ज्वर ही है। घोड़ों के गले में जो मांसखण्ड बढ जाता है, वही उनका ज्वर है। मोरों की शिखा का निकलना ही उनके लिये ज्वर है। कोकिल का जो नेत्ररोग है, उसे भी महात्मा शिव ने ज्वर बताया है। समस्त भेड़ों का पितभेद भी ज्वर ही है-यह हमारे सुनने में आया है। समस्त तोतों के लिये हिचकी को ही ज्वर बताया गया है। धर्मज्ञ भरतनन्दन! सिंहों में थकावट का होना ही ज्वर कहलाता है; परंतु मनुष्यों में यह ज्वर के नाम से ही प्रसिद्ध है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सन्दर्भ त्रुटि: अमान्य
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