विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 6 का हिन्दी अनुवाद
श्वेतकेतु ने कहा- मनुष्य त्वचा द्वारा आकाश में स्थित वायु का बारंबार स्पर्श करता है, नासिका द्वारा आकाशवर्ती गन्ध को बारंबार सूँघता है और नेत्र द्वारा आकाश स्थित ज्योंति का दर्शन करता है। इसके सिवा अन्धकार, किरणसमूह, मेघों की घटा, वर्षा तथा तारागण का भी बारंबार दर्शन होता है; परंतु आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता। सत्स्वरूप परमात्मा उस आकाश का भी आकाश है, अर्थात् उसे भी अवकाश देने वाला महाकाश है; यह निश्चित है, उन्हीं के लिये और उन्हीं के द्वारा इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि हुई है। वे ही सत्य तथा सर्वव्यापी हैं। भगवान के जो गुण सम्बन्धी नाम हैं, वे परमात्मा में औपचारिक हैं। नेत्र, मन तथा अन्य किसी इन्द्रिय के द्वारा भी उस सर्वव्यापी परमात्मा का ग्रहण नहीं हो सकता। वाणी द्वारा भी उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। केवल सूक्ष्म बुद्धि द्वारा उनका चिन्तन एवं साक्षात्कार किया जा सकता है। यह सारा प्रपंच (समष्टि एवं व्यष्टि जगत) उन्हीं परमात्मा में प्रतिष्ठित है। ठीक उसी तरह, जैसे बड़ा और छोटा घड़ा पृथ्वी पर स्थित होते हैं। वह परमात्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है, केवल ज्ञानस्वरूप है। उसी के आधार पर यह सम्पूर्ण जगत प्रतिष्ठित है। जैसे एक ही जल में मृत्तिका विशेष एवं बीज आदि द्रव्य विशेष के संयोग से रसभेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रकृति और आत्मा के संयोग से गुण कर्म के अनुसार अनेक प्रकार की सृष्टि प्रकट होती है। जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीकर तृप्ति लाभ करता है, उसी प्रकार साधक ब्रह्मबोधक वाक्य को स्मरण करके सदा तृप्ति एवं सम्पूर्ण ज्ञान से उसका सुख उत्तोतर अभ्युदय को प्राप्त होता है। सुवर्चला बोली- निष्पाप मुने! इस शब्द से क्या सिद्ध होने वाला है? मेरी तो ऐसी धारणा हैं कि शब्द से कुछ भी होने-जाने वाला नहीं है। परंतु पौराणिक विद्वान् ऐसा मानते है कि परमात्मा अचिन्त्य एवं वेदगम्य हैं। जैसे लोक में बहुत से शब्द निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार वैदिक शब्द भी हो सकते हैं। मेरी बुद्धि में तो यही बात आती है; अत: आप इस विषय में यथोचित विचार करके मुझे यथार्थ बात बताने की कृपा करें। श्वेतकेतु ने कहा- ‘शुद्धस्वरूप परब्रह्म परमात्मा वेदगम्य हैं’ श्रुति का यह कथन परम सत्य है। इस विषय में नास्तिकों का कहना है कि परब्रह्म की प्रत्यक्ष उपलब्धि न होने से उक्त श्रुति का कथन व्याघात दोष से दूषित होने के कारण सत्य नहीं है। इसका उत्तर आस्तिक यों देते हैं कि सूक्ष्म शरीर विशिष्ट स्थूल देह में जीवात्मारूप से परब्रह्म की ही उपलब्धि होती है; अत: श्रुति का पूर्वोक्त कथन यथार्थ ही है। उत्तम अंगोवाली देवि! कोई लौकिक शब्द भी निरर्थक नहीं है; फिर वैदिक शब्द तो व्यर्थ हो ही कैसे सकता है। जिन शब्दों का परस्पर अन्वय नहीं होता जो एक दूसरे के असम्बद्ध होते हैं, उन्हीं को लौकिक पुरुष निरर्थक बताते हैं। किंतु शुभे! लौकिक शब्दों की ही भाँति वैदिक शब्द भी यद्यपि सार्थक समझे जाते हैं, तथापि वे साक्षात परमात्मा का बोध कराने में असमर्थ हैं; क्योंकि परमात्मा को वाणी का अगोचर बताया गया है और उनकी अगोचरता युक्तिसंगत भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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