महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 139 श्लोक 44-58

एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 44-58 का हिन्दी अनुवाद

जिसने वैर बाँध लिया हो, ऐसे सुहृद पर भी इस जगत में विश्‍वास नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि जैसे लकड़ी के भीतर आग छीपी रहती है, उसी प्रकार उसके हृदय में वैरभाव छिपा रहता है। राजन! जिस प्रकार बडवानल समुद्र में किसी तरह शान्‍त नहीं होता, उसी तरह क्रोधाग्नि भी न धन से, न कठोरता दिखाने से, न मीठे वचनों द्वारा समझाने-बुझाने से और न शास्त्रज्ञान से ही शान्त होती है। नरेश्‍वर! प्रज्‍वलित हुई वैर की आग एक पक्ष को दग्‍ध किये बिना नहीं बुझती है और अपराध जनित कर्म भी एक पक्ष का संहार किये बिना शान्‍त नहीं होता है। जिसने पहले अपकार किया है, उसका यदि अपकृत व्‍यक्ति के द्वारा धन और मान से सत्‍कार किया जाय तो भी उसे उस शत्रु का विश्‍वास नहीं करना चाहिये; क्‍योंकि अपना किया हुआ पापकर्म ही दुर्बलों को डराता रहता है। अब तक तो न मैंने कोई आपका अपकार किया था और न आपने मेरी कोई हानि की थी; इसलिये मैं आपके महल में रहती थी, किंतु अब में आपका विश्‍वास नहीं कर सकती।

ब्रह्मदत्त ने कहा- पूजनी! काल ही समस्‍त कार्य करता है तथा काल के ही प्रभाव से भाँति-भाँति की क्रियाएँ आरम्‍भ होती है। इसमें कौन किसका अपराध करता है? जन्‍म और मृत्यु- ये दोनों क्रियाएँ समान रूप से चलती रहती हैं। और काल ही इन्‍हें कराता है। इसीलिये प्राणी जीवित नहीं रह पाता। कुछ लोग एक साथ ही मारे जाते हैं; कुछ एक-एक करके मरते हैं और बहुत-से लोग दीर्घकाल तक मरते ही नहीं हैं। जैसे आग ईंधन को पाकर उसे जला देती है, उसी प्रकार काल ही समस्‍त प्राणियों को दग्‍ध कर देता है। शुभे! एक दूसरे के प्रति किये गये अपराध में न तो यथार्थ कारण हो और न मैं ही वास्‍‍तविक हेतु हूँ। काल ही सदा समस्‍त देहधारियों के सुख-दुख को ग्रहण या उत्‍पन्‍न करता है। पूजनी! मैं तेरी किसी प्रकार हिंसा नहीं करूँगा। तू यहाँ अपनी इच्‍छा के अनुसार स्‍नहेपूर्वक निवास कर। तूने जो कुछ किया है, उसे मैंने क्षमा कर दिया और मैंने जो कुछ किया हो, उसे तू भी क्षमा कर दे।

पूजनी बोली- राजन! यदि आप काल को ही सब क्रियाओं का कारण मानते हैं, तब तो किसी का किसी के साथ वैर नहीं होना चाहिये; फिर अपने भाई-बन्‍धुओं के मारे जाने पर उनके सगे-संबंधी बदला क्‍यों लेते हैं? यदि काल से ही मृत्‍य, दु:ख-सुख और उन्‍नति अवनति आदि का सम्‍पादन होता है, तब पूर्वकाल में देवताओं और असुरों ने क्‍यों आपस में युद्ध करके एक दूसरे का वध किया। वैद्य लोग रोगियों की दवा करने की अभिलाषा क्‍यों करते हैं? यदि काल ही सबको पका रहा है तो दवाओं का क्‍या प्रयोजन है? यदि आप काल को ही प्रमाण मानते हैं तो शोक से मूर्च्छित हुए प्राणी क्‍यों महान् प्रलाप एवं हाहाकार करते हैं? फिर कर्म करने वालों के लिये विधि-निषेधरूपी धर्म के पालन का नियम क्‍यों रखा गया है। नरेश्‍वर! आप के बेटे ने मेरे बच्‍चे को मार डाला और मैंने भी उसकी आँखों को नष्‍ट कर दिया। इसके बाद अब आप मेरा वध कर डालेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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